सोमवार, 3 सितंबर 2012


ये कैसी अदालत है, ये कैसा कटघरा है
ताले है जुबाँ पे,अभिव्यक्ति का खतरा है

इस नामुराद अवाम की,हिम्मत तो देखिये
साँसे अभी गरम है, दिल भी धड़क रहा है

वो लटक रही गरीबी,ख़ुदकुशी की शाख पे
भागी है घर से बेटी,हाकिम का तब्सरा है

जिदगी की जिंदगी पे, मेहरबानी तो देखिये
मरता वो शबोरोज है, पर जीता ज़रा ज़रा है

अब तो जम्हूरियत की,निगाहों का भरम टूटे
ए चाँद उफक पे आ जरा, सागर अभी ठहरा है

तारीख की सरजमीन,खाकओखू से तरबतर है
अब गौर से देखो उसे, वो नक्श जो गहरा है

यूँ आदमी की जंग,जारी है आदमी से
लथपथ पड़ा तो है, पर आदम कभी मरा है ?

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