सोमवार, 3 सितंबर 2012


तो कुछ,
कहती क्यों नहीं ,अर्चना
या
करती ही रहोगी अर्चना
हो सकता है
कुछ करती भी हो या
कुछ कहती भी हो ,मंत्र सा
पर युगों से बहरे कानो को
ऊँचा सुनायी देता है ,अर्चना
ऐसे में , चीखो ...
गला फाड ,चीखो
चीख ऐसी
जो कान के परदे फाड़ दे
पैने करो नाखून
जो '''मर्यादा''' के वल्कल उघाड़ दे
गीली धुआंती लकडियाँ
कब तक सुलगाओगी
बुझा चाहती हैं जो ,
उन्हें मशाल कब बनाओगी
ऐसी भी मुट्ठी को,
क्यूँकर बंद रखना
सूरज धरती आकाश को
कब भाया, कैद रहना
त्याग अर्चन आराधन का क्लांत मंत्र
तान प्रत्यंचा , बाणों को कर स्वतंत्र
आकाश पे रक्तवर्णी हस्ताक्षर अमर्त्य कर दो
भवितव्य में अनत मुक्ति की संभावना भर दो...

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