सोमवार, 3 सितंबर 2012


जी , १५ अगस्त
वही तिथि है
और आज़ादी
कोई अतिथि है
१९४७ में इसी रोज वो
दरवाज़ा खटखटाती है
पर दालान में ही
धंस कर
बैठ जाती है
घर के भीतर
कभी नहीं आती है
दुनिया को
घर के दरवाज़े पर ही
नज़र आती है
हँसते हुए , मुस्कुराते हुए
घर वालों को
पलट कर
मुँह चिढाते हुए........

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