सोमवार, 3 सितंबर 2012





(एक )

गुरुत्वाकर्षण कम था
या धरती से मोह भंग
पता नहीं .......

मेरा ही कोई दोस्त था .....नील आर्म स्ट्राँग
लंबे लंबे डग भरता
निकल गया
मैं तकता रह गया
उम्मीद के उस टुकड़े को
जो कभी चाँद सा चमकता था
गहरी उदास रातों में
निकलता नैराश्य के अँधेरे गर्त से
उजास की तरह
और फ़ैल जाता
चला गया एक दिन

हाँ , खबर तो यही थी
तस्वीर भी छपी थी
उस रोज
कि मेरे उसी दोस्त ने
झंडा गाड़ दिया
मेरे चाँद पे ,
उसकी धरती ने जीत लिया
मेरा चाँद

यहाँ ,
चिलचिलाती धूप में
कोई झंडा नहीं दीखता
दीखता है
सगुन का बांस
उसपे फहराता झंडा  
जिसे कभी गाडा था हमने .....
कुआं खोदने के बाद
गाँव में ...

हम बदल रहे थे
धरती का रंग
वो जीत रहा था
एक बंजर जंग
वो आसमां से भी ऊँची
छलांगें लगा रहा था ,
और हम जमीन पर
चल रहे थे
वो बदल चुका था
और हम ,
बदल रहे थे
वो बूझ रहा था पहेलियाँ
हम जिन्दा सवाल हल कर रहे थे


 (दो)

नील ! जब से तुम्हारे
पाँव पड़े हैं चाँद पर
तब से ही कहीं लापता है
वो चरखा चलाती बुढ़िया
कहाँ गयी होगी .....
किसी अन्य ग्रह पर
या होगी यहीं कहीं , पृथ्वी पर
कांपते हाथों से फूल चढाते
उस बूढ़े की समाधि पर
जो जीवन भर कातता रहा सूत
चलाता रहा चरखा........
स्मृतियाँ खींच लाई हो उसे पृथ्वी पर
तो क्या बुढ़िया को
ये भी पता चल चुका है !
कि उसके बूढ़े को मारने वाला
अब तक फरार है ,
उस की तलाश में
कहाँ कहाँ भटकेगी ,
साबरमती तट तक भी
क्या वो जायेगी
जहां ले रखी है उसने शरण
आजकल
तो क्या नील
तुम ने उसे सब कुछ बता दिया  ......

या फिर ऐसा
तो हो ही सकता है
इतिहास दोहराने की कोशिश की हो तुमने
निर्जन चाँद पर बदहवास जान हथेली पर लेकर
तुम्हारी नज़रों से बच बचा कर
चोरी छिपे सवार हो गयी हो यान में
और आ गयी हो पृथ्वी पर
खड़ी हो वहीं
करबद्ध , संपीडित स्वजनों में
आँखों की कोरों में बांधे
शताब्दियाँ का ज्वार ,दुर्निवार
स्टेच्यु ऑफ लिबरटी के गिर्द
शोक सभा में .........

कि पता चला चुका हो उसे नील
तू  कोलंबस का ही वंशज है
और चाँद पृथ्वी के बाद
अमरीका का दूसरा उपग्रह है........

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