शनिवार, 30 जून 2012


संसद के साठ साल और माँ के भी मेरी / खामोश क्यों रहें ये लब मुझे मालूम हुआ ||


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ऊलजुलूल हरकतों का सबब मुझे मालूम हुआ |
कोई सठिया गया है अब मुझे मालूम हुआ ||

उस नाखुदा को क्या कहें जिसने डुबो दिया |
भोला भी बहोत था तब मुझे मालूम हुआ ||

गो चिलमनों में उसकी कई छेद थे मगर |
गफलत में हम ही थे तब मुझे मालूम हुआ ||

माँ अपनी थी वैसी ही और बाप भी वैसे |
तकरार उसूलों पे हुई जब मुझे मालूम हुआ ||

लिखा है हर्फे माँ भी गलत सांवली तस्वीर में 
माँ क्यों हुई है जाँबलब मुझे मालूम हुआ ||

संसद के साठ साल और माँ के भी मेरी |
आँखों का मोतिया है धुला अब मुझे मालूम हुआ ||

गज़ल


भूल भी जाऊं तो याद आने का डर रहता है 
वो इजाज़त बगैर मेरे घर में रहता है

ये चाँद भी कोई ना आशना मुसाफिर है 
रात की रात ये तन्हा सफर में रहता है

है जो खुद्दारियां सजदे के आड़े आती रही 
दर्द दिल में कभी कभी कमर में रहता है

मैं अगर बंद करूं आंख भी तो क्या हासिल 
वो तो बाकायदा मेरी नज़र में रहता है

छाले भी उसके पाँव के अब फूटते नही
तमाम उम्र किसी दोपहर में रहता है 

है यूँ खामोश कि आंखें भी कुछ नहीं कहती
कैसी तन्हाई है गहरे सिफर में रहता है

तमाम उलझनों में है घिरी ये गज़लेजिन्दगी 
अजीब शख्स है फिर भी बहर में रहता है

क्लीन चिट् ....




क्लीन चिट् 
सदी का सबसे खतरनाक शब्द 
समाचार सुनते या पढते वक्त 
किसी हडबडी में
या गडबडी में 
रह जाए 
अनपढा अनसुना..
कि 
किसे मिली
क्यों मिली ...
तब रात भर 
नींद में चिहुंक चिहुंक
उठता हूँ 
पसीने से तर बतर 
कैसे बताऊँ कि 
वे ,जिन्हें 
किसी जांच के बाद 
अमूमन 
मिल जाया करती है  क्लीन चिट्
सपनों में
कितने खौफनाक दीखते हैं ......

सोमवार, 4 जून 2012


मुझसे मेरे शहर के दिनओरात पूछिये  
करता नहीं है इस पे कोई बात पूछिये 

कैसे लगूं गले बढ़ाऊं हाथ किस तरह 
मैं जानता हूँ फिर भी मेरी जात पूछिये 

बचपन की दोस्ती वहीं तक ही रही महदूद 
साहब से बचपने की कोई बात पूछिये 

क्यों मान के चलें के वो भी मान जायेंगे 
उनसे कोई नाज़ुक से सवालात पूछिये 

कोई भरम नहीं था मुझे क्यूं गिला करें 
वो दिन गए जो थे कभी हम साथ पूछिये 

हालांके अब भी हैं अदा में तेरे शोखियाँ 
मुश्किल में हैं हमारे भी हालात पूछिये 

सड़कों पे बह रहा है लहू बोलता भी है 
बातों में उसकी बात है क्या बात पूछिये 

तमगे सजे लिबास पे मुँह पे लगा है खून 
क्यों उनको मिल रहें है इनामात पूछिए 

उसने किसी उम्मीद में परचम उठा लिया
क्यों सो रहे हैं आपके जज़्बात पूछिये  

अपने गले की नाप की जिसने बनाई फांस 
कितने अंधेरों में हैं उसकी रात पूछिये  

जब के खुदा हमारा और तुम्हारा वही तो 
भरमा रहा है कब से उसकी जात पूछिये

उसके भरोसे में रहे सदियाँ गुजर गयी 
अब और कितने ढाएगा जुल्मात पूछिए 

हिंदू औ मुसलमान सिख ईसाई कब हुए  
किसने अलग किया हमें ये बात पूछिए 

आंसू 



मैं बह जाऊँगा 
सोख लेगी धरती मुझे 
और ,मैं सोख लूँगा 
तुम्हारी पीड़ा,तुम्हारे दुःख सारे ...


तुम
मुझे संभाल लो 
मैं
तुम्हे संभाल लूँगा 


मैं हूँ........ जब तलक
तुम हो..... तब तलक
कि मुर्दे कभी ..
रोया नहीं करते


बस,
मेरे भीतर जो गर्म है 
वही मैं हूँ 
बस,
मेरे भीतर जो बची शर्म है 
वही मैं हूँ .......
इसके अलावा
मैं और क्या 
दो कतरा
खारे जल का 


रविवार, 3 जून 2012


यूँ ही कभी कभी ..






यूँ ही कभी कभी,
किताबों की पुरानी रैक
साफ़ करते करते
गिर जाए
किसी किताब के बीच रखा गुलाब
और, बिखर..जाए
हरी कर दे 
स्मृतियों की पुष्पवाटिका
यूँ ही कभी कभी


यूँ ही कभी कभी
दिख जाए कोई रस्ते में
दफ्तर की जल्दी में
और मन कहे 
कि मैंने 
शायद तुम्हे पहले भी कही देखा है
थम जाए वक्त की रफ़्तार
दफ्तर की जल्दी,सभी
यूँ ही, कभी कभी.....


यूँ ही, कभी कभी
बैठे बिठाये
बचपन याद आये
और आँखों में
पिता के, पोपले मुँह की हंसी
उभर आये
पिता, जो अब भी बेसबर,
करते इंतज़ार
सुबह का अखबार
और फिर पुराना चश्मा उतार
आँखों से लगभग सटा, अखबार
देखना चाहते, पढ़ना चाहते,
हाल दुनिया का
कि, जैसे
बाकी रह गया हो, दुनिया को
देखना,समझना ,नजदीक से, अब भी
यूँ ही, कभी कभी ......


यूँ ही ,कभी कभी....
टूटे तन्द्रा,
फोन की घंटी से
कि ,बच्चा स्कूल से
लौटा नहीं अब तक
कि, गैस खत्म हो गयी,
और खाना,
नहीं बन पाया, तब तक
तमाम सूखे गुलाब
राह में मिले, अजनबी अहसास
पोपले मुंह की निश्छल हंसी
सब एकदम से ,
बिखर जाए
इस तरह चिहुंकाये ,
झकझोर जाए , जिंदगी ..
यूँ ही कभी कभी ...

रेत मजदूर को देखते हुए ...


रेत मजदूर को देखते हुए ...



उसने लोहा उठाया  ,
झट, उसका कान उमेठा
बाल्टी के नंगे कानों में पहना,
चल दिया,
वो भी ,सज संवर
बाहों में लटक ....चल पडी
साथ उसके डुबुक ...
छिछले पानी में घुसता,
नीचे मोतियों का,घूरा चमकता,
ले आता उपर,रेत भर भर
बस एक परत
मटमैले पानी के भीतर
मोतियों का चूरा,दमकता
डूबता उतराता , तैरता,
भर बाल्टी रेत,उलीचता 
तट से दूर खड़ी,नाव में
नदी किनारे बसे,तुम्हारे गाँव में 
भरी दोपहरी , थक कर 
गर्म तवे पे चलकर
धूसर ढूह की सूनी छांव में,
छितर जाता....... 

अखबार में गठियायी, 
बासी खबरे समेटे ,
सूखी रोटी...कुडकुडायी
अक्षर शब्द सब,
काले धब्बों वाले
पीले चाँद सी, रोटी के जिस्म पे,
उलट पुलट चिपक गए .....
पीला चाँद, दुनिया का अक्स लिए 
आइने सा ,बोल रहा था.....
सारी दुनिया सारा सच
खारी दुनिया का खारा सच
खोल रहा था.....

वो कौर पे कौर तोड़ रहा था  
एक कौर और
असंगठित मजदूरों की कल्याण कारी योजनाये 
सीधा हलक के भीतर 
एक कौर, और 
जापानी बुखार का कहर  
पानी के घूँट के साथ
उतर गया
सर्कस में कोई
सफ़ेद बाघ था, मर गया
ओबामा के भोज में
चिकन तंदूरी,
हैदराबादी बिरयानी
सैफ करीना की कहानी  
एक कौर, और
........ये मेरी नहीं, 
जनता की जीत है
............ये हमारी 
सेवाओं का फल है
बाद चुनाव् ,होने वाले सद्र की 
नवधनिक दीमकों की मुस्कुराती,
हाथ मिलाती तस्वीरें,  
......चबाये जा रहा है
दाँतों का झुनझुना
बजाये जा रहा है  
गाये जा रहा है......

रोटी खत्म ....
पेट आधा भर गया
तमाम ख़बरें 
पानी के साथ ,निगल गया
चल दिया आदतन  
ढूह  की ओट में
खाने के बाद मू....ने 
रोटी रह गयी पेट में ,
पानी बह गया रेत में,
सूख गयीं, भाप हुईं ,
गर्म तवे पर
तमाम ख़बर .....

तन मन ,बाद दो पहर ,
फिर तर बतर 
छालों में स्वेद बिंदु भर,
निर्विकार,थक हार
ढलते सूरज के साथ ,ढह जाता 
एक सन्नाटे सा ,
नदी किनारे पसर जाता  
गठियायी शैम्पू की पुडिया
टेंट से निकालता 
देह भर,साबुन की
सस्ती टिकिया लगाता 
दिन भर की हजार डुबकियों
के बाद भी,जाने क्या छुडाता  ,
मल मल नहाता...
सस्ता गम्कौउआ तेल लगा
किसी आस सा ,संवर गया 
पानी में जाने कब कैसे
दिन भर का छाला धुल गया   
सूरज ढलने के साथ साथ 
तारों की बारात चली 
उसके संग फिर रात चली .......
देशी दारू के ठेके पे 
सारी दुनिया है ठेंगे पे .....