मंगलवार, 16 अक्तूबर 2012


जो होती पत्थरों में भी जुबान पूछते 
शीशे के घरों में है कितनी जान पूछते

हवाएं थमीं हुयी है घुटा जा रहा है दम 
क्या आँधियों का है ये इमकान पूछते

मोहल्ले के लफंगों से सहमा हुआ सा है
बिटिया है उसके घर में क्या जवान पूछते

ऊंची इमारतों से शहर है भरा हुआ
जम्हूरियत में और कितने है सुलतान पूछते 

मुद्दत हुयी है मुझको मेरे यार से मिले
बाकी हैं अब भी क्या कोई एहसान पूछते

क्या सो गया खुदा भी अंधेरों के खौफ से 
या हुयी नहीं पाबंदी से अज़ान पूछते 

मेरी निगाहे शौक़ से कतरा रहे हैं वो 
मेरी गली में उनका है मकान पूछते

उनके गुरूर से भी ऊंचे है उनके ख़्वाब 
क्यों हैं जमीने इल्म पे लामकान पूछते

सड़कों पे जम गया जो लहू बोलता भी है 
बाकी जरूर होगी उसमे जान पूछते 

कल तस्करी के जुर्म में पकड़ा गया हूँ मैं 
लाये हो किस जहान से ईमान पूछते 

तेरे शहर में अब मुझे कैसे मिलेगा घर 
न हिन्दू हूँ और न मैं मुसलमान पूछते 

खारिज हुआ मेरा हल्फिया बयान  इस तरह 
हाथ दिल पे रख के क्यों दिया बयान पूछते