शनिवार, 26 मई 2012

जबकि , तुम नहीं हो ....


एक वक्ती सच मात्र होता है 
किसी का कहीं होना 
या फिर 
कही चले जाना,
कभी -कभी 
किसी के जाने के बाद भी 
बाकी रह जाती है खुश्क हवाओं में 
उसके अहसास की नमी
ठन्डे जिस्म के गिर्द 
उसके आगोश कि गर्मी 
दूर तक 
लिपटी रहती है 
सूनी ,सर्द ,स्याह रातों में 
लिहाफ के भीतर 
दबे पाँव आकर 
देर तक ,कुछ कहती रहती है
कैसे और कब 
बनता जाता है 
ऐसा रिश्ता 
रिश्ता ,
जो फितरतन होता है 
किसी बेवफा माशूक कि तरह 
और फिसल सकता है 
बंद मुट्ठी से
रेत की तरह 
रिश्ता ,
जो किसी के चाहने भर से ही 
बन तो नही सकता 
हाँ !
टूट जरूर सकता है 
किसी के चाहने भर से ही |
इन बेवफा ,बेमुरव्वत,रिश्तों के दौर में 
कोई क्यों ??
जाने के बाद भी 
कभी पूरा नहीं जाता 
क्यों थोड़ा वहीँ रह जाता है 
जिस्म के भीतर 
कोई काँटा 
जैसे 
टूट जाए 
और 
दर्द रह जाए |
ये , कैसा रिश्ता तुम से है 
कौन हो तुम ?
मेरी धमनियों में 
रक्त कि तरह
क्यूँ बहते हो ?
मेरे अशक्त फेफड़ों में 
ये सांस सा
क्या भरते हो  ?
मेरी नींदों में 
खवाब सा 
मेरे गीतों में 
राग सा 
मेरे अंधेरों में 
उजास सा 
क्या रचते हो ??

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