मंगलवार, 16 अक्तूबर 2012


जो होती पत्थरों में भी जुबान पूछते 
शीशे के घरों में है कितनी जान पूछते

हवाएं थमीं हुयी है घुटा जा रहा है दम 
क्या आँधियों का है ये इमकान पूछते

मोहल्ले के लफंगों से सहमा हुआ सा है
बिटिया है उसके घर में क्या जवान पूछते

ऊंची इमारतों से शहर है भरा हुआ
जम्हूरियत में और कितने है सुलतान पूछते 

मुद्दत हुयी है मुझको मेरे यार से मिले
बाकी हैं अब भी क्या कोई एहसान पूछते

क्या सो गया खुदा भी अंधेरों के खौफ से 
या हुयी नहीं पाबंदी से अज़ान पूछते 

मेरी निगाहे शौक़ से कतरा रहे हैं वो 
मेरी गली में उनका है मकान पूछते

उनके गुरूर से भी ऊंचे है उनके ख़्वाब 
क्यों हैं जमीने इल्म पे लामकान पूछते

सड़कों पे जम गया जो लहू बोलता भी है 
बाकी जरूर होगी उसमे जान पूछते 

कल तस्करी के जुर्म में पकड़ा गया हूँ मैं 
लाये हो किस जहान से ईमान पूछते 

तेरे शहर में अब मुझे कैसे मिलेगा घर 
न हिन्दू हूँ और न मैं मुसलमान पूछते 

खारिज हुआ मेरा हल्फिया बयान  इस तरह 
हाथ दिल पे रख के क्यों दिया बयान पूछते 



सोमवार, 3 सितंबर 2012


जन्मदिन तुम्हारा
क्या दूं
तुम्हारे जन्मदिन पर
जो हो हर जन्मदिन से बेहतर
जो तुम्हे ऐसे खुश कर सके
जैसे कि दुखों के अगाध सागर के पार
तट पर पहला कदम रखते होता है किसी को
कि तुम मुझे कुछ ऐसे टूट कर प्यार करो
कि मैं , हाँ सिर्फ मैं ही हूँ
जो तुम्हे वो सब दे सकता है
जिसका ख्वाब ही देख पायी हो तुम अब तक
क्या दूं ऐसा
जो भुलाये न भूले
क्या बोलो क्या ?
है कुछ ऐसा
ऐसा कुछ हो भी सकता है क्या ?

हाँ ,ऐसा कुछ है
ऐसा कुछ हो सकता है
कि ,मै ऐसा कुछ ढूँढ रहा हूँ
तुम्हारे लिए अनवरत
ये अहसास ही है बहुत ...


तो कुछ,
कहती क्यों नहीं ,अर्चना
या
करती ही रहोगी अर्चना
हो सकता है
कुछ करती भी हो या
कुछ कहती भी हो ,मंत्र सा
पर युगों से बहरे कानो को
ऊँचा सुनायी देता है ,अर्चना
ऐसे में , चीखो ...
गला फाड ,चीखो
चीख ऐसी
जो कान के परदे फाड़ दे
पैने करो नाखून
जो '''मर्यादा''' के वल्कल उघाड़ दे
गीली धुआंती लकडियाँ
कब तक सुलगाओगी
बुझा चाहती हैं जो ,
उन्हें मशाल कब बनाओगी
ऐसी भी मुट्ठी को,
क्यूँकर बंद रखना
सूरज धरती आकाश को
कब भाया, कैद रहना
त्याग अर्चन आराधन का क्लांत मंत्र
तान प्रत्यंचा , बाणों को कर स्वतंत्र
आकाश पे रक्तवर्णी हस्ताक्षर अमर्त्य कर दो
भवितव्य में अनत मुक्ति की संभावना भर दो...

बच्चे .............




बच्चे उगे
जैसे उगते है, पौधे जंगल में

बच्चे बढे
जैसे बढते हैं, देवदार जंगल में

बच्चे हँसे
जैसे हँसते है, फूल जंगल में

बच्चे सहें
जैसे सहती है दूब जंगल में

बच्चे जलें
जैसे जलते हैं पलाश, जंगल में

बच्चे खिले
जैसे खिलती है हरियाली, जंगल में

बच्चे खुले
जैसे खुलता हैं आकाश जंगल में

बच्चे झरे
जैसे झरती है धूप, जंगल में

बच्चे उलझे
जैसे उलझती हैं झाड, जंगल में

बच्चे खोजे
जैसे खोजे है कोई राह, जंगल में

बच्चे घिरे
जैसे घिरते हैं मेमने, जंगल में

बच्चे लड़े
जैसे लड़ती हैं जिजीविषा, जंगल मे


आँखों को,जो जो दिखता है
वो सारा क्या,सच होता है ?

सब कुछ,क्या होता बाहर ही
या कुछ होता है, भीतर भी

सृजना अंखुआती ,भीतर ही
कलियाँ मुस्काती ,भीतर ही

घाव कोई लगता,भीतर ही
दर्द उभरता है,भीतर ही

आँख भरा करती भीतर ही
सोच पका करती,भीतर ही

गीत कोई रचता,भीतर ही
राग कोई रुचता,भीतर ही

खवाब कोई पलता,भीतर ही
खवाब कोई मरता,भीतर ही

प्रेम उमगता है ,भीतर ही
मौन कोई पढता, भीतर ही

मरने से पहले, हर इंसा
पहले मरता है भीतर ही

सब कुछ होता है,भीतर ही


ठन ठना ठन, ठन ठन ठन ..
by Pankaj Mishra on Friday, April 20, 2012 at 11:43pm ·
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कभी कभी क्यों हो जाता है,
बच्चे जैसा मन
बिना विचारे कुछ करने का,
क्यूं करता है मन

सोच समझ कर देख लिया ,
गुणा भाग कर देख लिया
जीवन के इस अंकगणित से ,
होती है उलझन

झूठ को नंगा करने का,
सच को सच कह सकने का
साहस पैदा कर पाता ,
बन जाता दर्पण

खुश होने पर गा न पाऊं ,
चोट लगे चिल्ला न पाऊँ
खुद से आँख मिला न पाऊं
उफ़, ये दुह्सह्य दोहरापन्

किस्से क्या,व्यवहार करू,
किसका कब, दरबार करू
हरदम यही, विचार करू ,
भाड़ में जाये, अनुशासन

खीस निपोरे, हे हे करना,
जूती भी सर, माथे धरना
सहम सहम,कब तक जीना ,
छोड़ छाड दूं ,ये जीवन

केवल सुख सुविधा है जोड़ी,
इसकी उसकी ,बांह मरोड़ी
जो भी आया, जैसे आया,
पाई पाई, आना कौड़ी

घर बाहर सब,भरा हुआ है ,
वो इतराया,खडा हुआ है
भीतर का बच्चा, चिल्लाये.......
ठन ठना ठन, ठन ठन ठन ...


ये कैसी अदालत है, ये कैसा कटघरा है
ताले है जुबाँ पे,अभिव्यक्ति का खतरा है

इस नामुराद अवाम की,हिम्मत तो देखिये
साँसे अभी गरम है, दिल भी धड़क रहा है

वो लटक रही गरीबी,ख़ुदकुशी की शाख पे
भागी है घर से बेटी,हाकिम का तब्सरा है

जिदगी की जिंदगी पे, मेहरबानी तो देखिये
मरता वो शबोरोज है, पर जीता ज़रा ज़रा है

अब तो जम्हूरियत की,निगाहों का भरम टूटे
ए चाँद उफक पे आ जरा, सागर अभी ठहरा है

तारीख की सरजमीन,खाकओखू से तरबतर है
अब गौर से देखो उसे, वो नक्श जो गहरा है

यूँ आदमी की जंग,जारी है आदमी से
लथपथ पड़ा तो है, पर आदम कभी मरा है ?


कितने ठौर, दिखाए दुनिया
कितने तौर, सिखाए दुनिया  

मेरे जैसे,  जाने कितने
मुझको, और दिखाए दुनिया

एक नार  सरकार चलावे
एक पीसे लहसुन धनिया

सूखे खेती, मरे किसान्
सूदखोर सरकार कि बनिया

धरती छीनी,जंगल छीना
परगति से भरमाए दुनिया

बस दुःख थोडा छलक गया
भर आयीं जो फिर अखियाँ

किसको पीर सुनाऊ अपनी
लग रोऊँ किसकी छतिया

हड्डी चूसे सेठ महाजन
दूध मलाई चापे कुतिया

दुखियारी की भूख तो देखो
चाँद काट , खाये  रतिया

नेताओं के आश्वासन सी
साजन की झूठी बतिया

परजा तंत्र कि ठंडई में
कैसी भंग मिलाये दुनिया

सपने ,तितली भये,सखी
कब इस फूल ,कब उस पतिया

ठगिनी की करताल पे देखो
मनमोहन नाचे ता ता थैय्या

सूखे खेती, मरे किसान्
सूदखोर सरकार कि बनिया

बस चुनाव कि बात है साथी
मांगे , भीख चतुर बनिया

कैसे अपनी इज्जत ढांपे
फाटी सुखिया कि अंगिया

इन् आँखों कि बात न् पूछो
बारह मॉस लगे हथिया

लाल बगूला लील गयी
डाइन सी काली रतिया

दुःख का घन ऐसे बरसा
बह गयीं रही सही खुशियाँ


जुलुम जोर अब बंद करो
लाल हुई जाती अंखिया

लाल बगूला निकल रहा
फोड समुन्दर की छतिया

रोके टोके अब ना रुकेगी
अंधड भयी हवा,सखिया

मुट्ठी बाधे निकल पड़ी हैं
कितनी झांसी की रनियां

इसकी उसकी जात न् पूछो
सब डारे है , गलबहियां


दहशत ऐसी यूँ है तारी वो अजनबी लगने लगे
अपनी खुदी से या खुदा खुद ब खुद डरने लगे

कैसी बहारें अब के आयी,वीरानगी ये कैसी छायी
बागबाँ कैसा है जो गुलशन में गुल मरने लगे

आईन के चटखे हुए से ,आईने में झाँक कर
शक्ल जो देखी तो अपने आप से डरने लगे

ऐसी भी तो जल्दी है क्या ठहर देख मंज़र ज़रा
आग जंगल में लगी और राजपथ जलने लगे

दर्द की ये दास्ताँ किसको सुनाये जा के हम
तुम ही इसको गुनगुना लो लब मेरे थकने लगे

रस्मे उल्फत राहे दुनिया सीधी भी है टेढी भी है
हो सके दीवाना कर दो दीवार ओ दर ढहने लगे

झोपड़े की राख से कोई तो चिंगारी उठाओ
लौ से लौ की लौ लगाओ जो रौशनी मरने लगे

चंद ख्वाबों के सहारे कट तो जाती जिंदगी
नींद का इक घर क्या उजड़ा ख़्वाब भी मरने लगे


और सनद भी रहे ...

मेरे लिखे हुए पे
दस्तखत इक
बना देना
फिर मुझे वो खत
वापस हरगिज़
नहीं देना
मेरा हाल तुम्हें
मिल जाएगा
और तुम्हारे मन का
पता हमें भी
चल जाएगा
यूँ पोशीदा ही रहे
और सनद भी रहे .....

अक्ल परीशां कि दिल बदले,
दिल परीशां कि अकल बदले

कभी तो खुशगवार मौकों पे
उदास लम्हों का दखल बदले

आइना भी अब डराये है मुझे ,
जिंदगी कुछ तो शकल बदले

चाँदसूरज जमीनओआसमान
कहीं तो कुछ आजकल बदले

बाद खुदकुशियों के कमसकम
क्या बदला आज जो कल बदले

हर्फों के नए बीज डालो तो सही
नारों की कुछ तो फसल बदले

निजाम बदल बदल के देखा है
नाजिमों की अब नसल बदले

वो जो ताजिदगी पामाल रहा
उसकी पेशानियों पे बल बदले


आत्मा का पक्ष............

गर्म है मौसम
पसीने पसीने हुआ जाता है
खून का दबाव
बेहद बढ़ा हुआ है
सीने के बाएं कोने से
उठता है
बेहद चुभता है दर्द
लहरा उठता है
बाएं बाजू में
आत्मा जरूर
वहीं रहती होगी
बाएं कोने में
आत्मा ने चुन लिया है
अपना पक्ष
कभी भी रुक सकती है
देश कि हृदय गति ......

हर कोई यहाँ चुप है बोलना मना है
और अँधेरा घुप्प है डोलना मना है

भूख के विरुद्ध कोई अनशन मना है
आत्मा हो शुद्ध तो जीवन मना है

हुकुम तो हुकुम है,उदूली मना है
हो जमीर क़र्ज़ में वसूली मना है

तुकबन्दियाँ खूब करो,नारा मना है
कोरस में कोई गीत गाना मना है

सर्दियों में चीथड़ों में कांपना मना है
और तिरंगे से बदन को ढांपना मना है

झालरें से घर सजाओ परचम मना है
रात के आँचल में तारे टांकना मना है    

घर के किवाड़ बंद रखो झांकना मना है
खिड़कियों से मुँह उठा के ताकना मना है

सर को झुकाये ही रखो,उठाना मना है
इस निजामे कोहन का,सामना मना है



शामिल है आईन में हुकूक,बस बांच लो
उन हकूकों के लिए मारना मरना , मना है
तोहमतों की चादरें जितनी ओढा दो
पुरउम्मीद ख्वाब बंद आँखों में रहें
तब्सरा कोई ,ज़ुबानी मना है
दर्द हद से गुजर जाए तो रो लेना
कल नुमाइश में मिले जो चीथड़े पहने हुए
उसको हिन्दुस्तान कहना अब,मना है
आशिकी जम के करो ,
रूठना मना है
संग दिल को बनाओ ,चलाना
मना है
आंसू टपक ले आँख से लहू मना है

सर्दियों में चीथड़ों में कांपना मना है
और तिरंगे से बदन को ढांपना मना है

झालरें से घर सजाओ परचम मना है
रात के आँचल में तारे टांकना मना है  


चापलूसी के सिवा साहब को कुछ भाता नहीं
मुझको सीधी बात करने के सिवा आता नहीं

दौड़ है चूहों की इसमें बोलो मैं कैसे बढूँ
चाहता हूँ मैं भी बढ़ना पर बढा जाता नहीं

अब नहीं हैं रेंगती ये साहबों के कान पे
हम भी जुओं से नहीं है रेंगना आता नहीं

दीमको के इस शहर में लकडियों की कोठियां
हादसा होने को है और कोई चिल्लाता नहीं

हाकिमों की जी हुजूरी में गुजर गयी जिंदगी
अब उन्हें इसके सिवाये और कुछ आता नहीं

हैं बड़े एहसान हम पे हम करें तो क्या करे
दूजा चढ़ जाए है मुझपे पहला भर पाता नहीं

मुँह छिपा न् पाए तो नजरें झुकाना सीख ले
बेशरम इतना है कि इतना भी कर पाता नहीं

हम तरक्की चाहते तुम भी तरक्की चाहते
जिस तरह तुमने है पायी उस तरह आता नहीं

जिंदगी शतरंज की पुरपेंच बाज़ी हो गयी
चाल चलना चाहता हूँ पर चला जाता नहीं

तुमसे मिलने की कोई सूरत नहीं आती नज़र
और तुम्हारे घर से पहले मेरा घर आता नहीं

मैं भी आखिर आदमी हूँ कुछ खता हो जाती हैं
हर खताओं की सजा हर कोई तो पाता नहीं

और मैं कैसे कहूँ के हमको तुमसे प्यार है
तुम भी हो खामोश और मुझसे कहा जाता नहीं

जिस्म में पत्थर पड़े हो और सुनवाई न हो
हथियार तब उठ जायेंगे ये कोई उठवाता नहीं

जब से माँ गुजरीं हैं मेरी तब से ले कर आज तक
कोई उतने प्यार से अब मुझको सहलाता नहीं

उस जवां लड़की ने जब से सर उठाना सीखा है
कुछ और ही सूरत है उनकी वो पिता माता नहीं

मैं गज़ल कह लूं तो आकर तुम कसीदे काढना
माफ करना अब भी मुझको ये हुनर आता नहीं

एक दो बीमारियाँ मुझको विरासत में मिली
रीढ़ की हड्डी पे अब भी चोट सह पाता नहीं

बख्शो मुझे इज्ज़त तो मेरा सर वहीं झुक जायगा
बेवजह सजदे में ये अब ज्यादा रह पाता नहीं


माँ ! तुम्हारी छवि
एक कुहासा है
पार इस के
कोई कहाँ जा पाता है
मैं आ रहीं हूँ
कुहासे के उस पार
जहां तुम होगी
और मैं
खुल कर बातें करेंगे
जैसे बात करती है
एक स्त्री दूसरी से
बेपर्दा .......

माँ
देखना है
तुम्हारा घूंघट
तुम्हारा वास्तव
शाश्वत छवि उलट
जानना है
किस धातु का बना है
तुम्हारा कंगन ,तुम्हारा बिछुवा
तुम्हारे सारे आभूषण
तुम्हारे स्वेद अश्रु के सान्द्र विलयन में
सब घुलता आया है अद्यतन
तुम्हारे रक्त मांस का
एक हिस्सा हूँ मैं ....
तब इतनी
अघुलन शील क्यों
अपने स्त्री रूप में ...
क्यों नहीं घुल पाती
इस खारे विलयन में
क्यों फांस सी अटक जाती हूँ
तुम्हारे मन में
त्याग और ममता का आवरण भी
अब तो अक्सर
उतर जाता है
कोई अनजाना अनचीन्हा भयानक
चेहरा नज़र आता है
तुम्हारी अँगुलियों के नाखून भी
कितने बड़े हैं
मेरे कलेजे पे भी तो
फफोले पड़े हैं
आखिर किस धातु के गहने
फिर मुझे सौंप रही हो
इस बोझ को ढोना नहीं चाहती
अब और रोना नहीं चाहती
किन युगों में
धातु कर्म की किस जटिल रासायनिक क्रिया ने
इन् धातुओं का निर्माण किया
जिसका गलनांक
तर्क और विवेक के ताप से परे है

मैं
उस शास्त्र को
उन शास्त्रियों को
प्रणाम करना चाहती हूँ
और उनकी इजादों को भी
अंतिम प्रणाम ......

मैं,
आ रही हूँ.. माँ
तुम्हारे कंगन उतार
कुहासे से पार
जा रही हूँ .......माँ

कुछ अजीब सी महफिल है
है , जिस्म कहीं कहीं दिल है

बस शराफत के मारे हुए हैं
जनाजे में.. तभी कातिल है

यूँ हुआ वो..... चश्मेबददूर
होंठो के नीचे.. कोई तिल है

कुतरना हुआ आसाँ कितना
जहाँ चूहे हैं....... वहीं बिल है

दरिया मिटा लेता है वजूद
समंदर बड़ा.... तंग दिल है

कितना करीब हो सके कोई
आस्तीन में जिसका बिल है

ओ मेरे अनसुने बादल
अब न कर
तू और घायल
देख तो ,
ये रात काली
टांकती तारों से आंचल
पूछती है,सज संवर
कहाँ है तेरा ठिकाना
उसको तेरे साथ
आज है किस देस जाना
सूर्य के उत्ताप से
तेरी धरा है तप रही
एक तेरा ही नाम
मानों निरंतर जप रही
ओ मेरे अनसुने बादल
देख तो ,
उस चाँद को
जो हौले हौले चल रहा
रात का तारों टंका
आंचल समेटे
घेर अपने पाश में
आज उसको
जकड फिर से
छा जाए तू उम्मीद सा
पूरे गगन में
सृष्टि हो मगन
नर्तन में


घन घोर बरसे
दिन बदल दे शाम में
तप रही है जाने कब से
तेरी धरा इस घाम में
बस इसी उम्मीद में कुछ सिक्त हो लूं
अपने सूनेपन से थोडा रिक्त हो लूं ..........


आस्मानोजमीन
उनको दरकार हो जितनी
हर हाल में,
कमोवेश मुहैया तो हो उतनी
दौर ऐसा है के बच्चों को
गमलों से निकाला जाये
ज़माने की आँधियों में ,
हमलों में ही पाला जाए
धोबी के गधों सा बोझ
उठाये हुए बच्चे
बचपन से रीढ़ कमान सी
झुकाए हुए,बच्चे
ऑटो की पीठ पे जैसे
लटकाए हुए बच्चे
अलस्सुबह रिक्शों पे
कुम्हलाये हुए बच्चे
सीरियलो के सौजन्य से
बुढाए हुए बच्चे
स्कूल जाते ममता से
ठुकुराए हुए बच्चे
मन के सच्चे न हुए बच्चे
मानो बच्चे न हुए बच्चे
असमय पकाए जा रहे है
जो बाजारी फलों जैसे
बच्चे कहाँ रहे
जो कच्चे ना रहे ......


आज़ादी
उस विशाल किले का नाम है
जिस पर कुछ लोगों का
अवैध कब्ज़ा है
जिसके दरवाज़े पर
मजबूत पहरा है
और किला बंद है
भीतर से
किले के भीतर अँधेरा है
कोई राज़ बड़ा गहरा है
साल में कभी कभी
कोई नज़र आता है
मुनादी करते हुए
किले के बुर्ज से
वायदा बाज़ार का कोई खिलाड़ी
बोलियां लगात हुआ


आधे चुप हैं डर से
आधे संतुष्ट हैं
अपने टूटे फूटे घर से
कुछ हवेली के बाहर उग आयी
खर पतवार साफ़ करते हैं
कभी दीवारों पर उग आये
खून के धब्बे धोते हैं
और मन ही मन रोते हैं
इसमें उनके अपने
बच्चे भी होते है

जी , १५ अगस्त
वही तिथि है
और आज़ादी
कोई अतिथि है
१९४७ में इसी रोज वो
दरवाज़ा खटखटाती है
पर दालान में ही
धंस कर
बैठ जाती है
घर के भीतर
कभी नहीं आती है
दुनिया को
घर के दरवाज़े पर ही
नज़र आती है
हँसते हुए , मुस्कुराते हुए
घर वालों को
पलट कर
मुँह चिढाते हुए........


न बोलिए न सुनिए बस देखते रहिये
अपने ही हाथों अपना गला रेतते रहिये

मुमकिन न हो ऐतबार अपनी ही बात पे  
बस एक झूठ बोलिये और फेंटते रहिये

किस किस को बताएं वजहेतर्केतालुकात
अपने गरेबां में मुँह छुपाइये झेंपते रहिये

झूठ के कोहराम में सच की सुनेगा कौन
भाड़ में सच्चाई फिर भी झोंकते रहिये

हर ओर तो लगी है आग मौका निकालये
कुछ रोटियां अपने लिए भी सेंकते रहिये

जिसने भी पढ़ रखीं हैं दो चार किताबें
ज़िन्दान में उम्र भर के लिए फेंकते रहिये

उनके क़ुतुब खानों में हैं जानवर बहोत
कुत्तों को छांट लीजिए और भौंकते रहिये

जब इन्साफ की देवी की आँखों पे है पट्टी
अन्धो के इन्साफ का हुनर देखते रहिये

सूखी हुई लकडियों में ये हौसला भी है
बुझने नहीं पायेगी आग देखते रहिये

कुछ जिंदगी का खौफ कुछ रद्देअमल का डर
बैठे बिठाए इन्कलाब का वजन आंकते रहिये

इन् जहर बुझी हवाओं का हम ,क्या गिला करें
खुशबुओं का ही सही चलो अब सिलसिला करें

याद कर पाना उन्हें जो भूल बैठे है हमें
ऐसा मुश्किल नहीं तो क्यूँ ना मिला करें

एक जो गुलशन में है और दूजा जो गुलदान में
जड़ से उखड के गुल कोई क्यूँकर खिला करें

आसानियाँ दुश्वारिया सब दोस्त है हमराह है
इससे ज्यादा जिंदगी पे हम और क्या कहें

हाशिए पे है पड़े जो,एक नज़र उन पे करो
वो कौन है इनका खुदा ये आलिम बयाँ करें

जिस्म सा मैं बच गया इक जान थी चली गयी
तकदीर का ये तब्सरा तो क्या खुदा करे

भूख से करवट बदलते, नींद आये भी तो कैसे
दिल से पहले बुझ गया चूल्हा,तो क्या करें

एक उम्र से जो हाशिए पे हैं पड़े हुए
खुद ही लपक के उनसे क्यों न मिला करें


कभी ख़्वाब बन के नींद में आओ तो कोई बात बने
जो सो चुके हैं उनको जगाओ तो कोई बात बने

इन् खुश्क हवाओं में यूँ ही सब सूख रहा है
घटाओं झूम के छा जाओ तो कोई बात बने

मुमकिन है के दुश्वारियां राहों में बहोत हैं
कुछ खार तुम भी हटाओ तो कोई बात बने

शेरो सुखन से भी कभी कोई फर्क पड़ा है
जरा मैदान में आओ तो कोई बात बने

खामोशियों का क्या सिला यहाँ तुमको मिला है
मेरी आवाज़ में आवाज़ मिलाओ तो कोई बात बने

शुभकामनाएं !
भीतर कहीं गहरे धंस जाती हैं
इक फांस सी फंस जाती है
न जाने कितनी फाँसें
अटकी हैं ऐसी
जारी हैं लगातार , साल दर साल
जन्मदिन पर कभी
बरस गांठ पर विवाह की
इस कुचैली गठरी में
कितनी गांठें पड़ती जाती हैं
हर बरस एक एक कर
क्रमशः खुलती जाती है
भीतर का सारा सच
उगलती जाती है
दिल भी थेथर है
बिला वजह बल्लियों उछलता है
फांस तब थोडा और धंस जाती हैं
गांठे खुलना जब
बंद हो जायेंगी......... तब
शोक जरूर मनाना
अपने संदेशों का सोग जरूर मनाना
उस अपात्र जीवन पर
कामनाओं से भी जिसे
कोई हौसला न मिला
जैसा जीना था जीवन नहीं जिया
स्यापा करना उस जीवन का
शुभ न हो सका जो
व्यर्थ करता रहा कामनाएं
रहा खुद में मगन , आजीवन
नियन्त्रित करता रहा
अपने रक्त में मधु स्तर
नापता रहा बिला नागा , रक्तचाप
एक दिन दिल का दौरा पड़ ही गया
उस रोज वो अंततः मर ही गया


मेरे मोहल्ले में सुना कल रात कोई मर गया
कनखियों से झांकता उस घर को मैं दफ्तर गया

रास्ते में जो पड़ीं सारी इबादतगाहों पर
मैंने तरक्की पायी थी सो मैं झुकाता सर गया

था मिठाई का बड़ा डब्बा हमारे हाथ में
शाम जब गहराई उसके बाद ही मै घर गया

बाकायदा अफ़सोस करने जब मै जाने को हुआ
पुख्ता बहाना सोचने के बाद ही भीतर गया

क्यों मैं सोचूँ के मेरा भी हश्र होना है यही
पहली फुर्सत में ही तो सीधे मैं उनके घर गया

मेरी गाड़ी से जरा सी ही तो बस ठोकर लगी
बात कोई और होगी इतने से ही क्यों मर गया

नीली बत्ती थी लगी क्यों खामखा टकरा गया
औंधे रिक्शे से निकल बीमार काँधे पर गया

मोमबत्तियाँ जिसने बनाई अब शुक्रिया कैसे करूं
पर जेहन से मुँह छिपाना आसां कितना कर गया


मेरे मोहल्ले में एक रिक्शा वाला रहता है , नाम है ' जमाल ' , मेहनती और ईमानदार आठ बच्चों का बाप , दो अदद बीवियों का इकलौता शौहर उसके आठ बच्चों में उम्र का फासला उतना ही जितना कुदरत किसी होम सेपियन ( homo sapien ) को इजाज़त दे सकती है | जमाल का जिक्र मैं इसलिए कर रहा हूँ कि आज से ठीक तींन दिन पहले मेरे बेटे का जन्म दिन था और सुबह ऑफिस जाने से पहले घर में पत्नी से इसी बात पर विमर्श हो रहा था कि आज क्या किया जाए ? विशु का जन्म दिन कैसे सेलिब्रेट किया जाए या फिर कुछ किया भी जाए या नहीं , नतीजा सिफर ........कुछ भी तय नहीं हो पा रहा था | दफ्तर के लिए देर हो रही थी सो मैं निकल पड़ा | दफ्तर में भी कुछ देर तो इसी उधेड़बुन में रहा फिर अमूमन दफ्तर जैसे अपना समय आपके जीवन से अपनी जरूरत के मुताबिक़ काट कर निकाल ही लेता है तो उस रोज भी दफ्तर ने अपनी जरूरतें मेरी मसरूफ़ियत में तब्दील कर दीं और कब शाम हो गयी पता ही नहीं चला | दफ्तर से छूटते ही फिर अचानक सुबह की बात याद आ गयी लेकिन यह सोच कर घर फोन भी नहीं किया कि कही अगर बेटे ने उठा लिया तो ......एक अपराध बोध में जो सर झुका तो सीधा घर के गेट पर ही कालबेल बजाने के लिया उठा , मैंने ध्यान भी नहीं दिया कि इस बीच किसने गेट खोल दिया और मैं अपनी धुन में सीधा घर के मुख्य दरवाजे पर पहुचा | दरवाजा पहले से ही खुला हुआ था | अचानक नज़र पड़ी तो देखता क्या हूँ कि जमाल सपरिवार मेरे घर में आया हुआ है ,मेरे ही घर में उसने मेरा स्वागत कुछ इस तरह किया मानों मैं ही अपने घर में मेहमान हूँ | मैं बड़े अचरज में था कि ये क्या हो रहा है उससे ज्यादा यह सोच रहा था कि ऐसा क्यों हो रहा है ? जमाल की दोनों बीवियां और उसके आठो बच्चे , पूरा घर सजाने में इतने मसरूफ थे उन्हें यह ध्यान ही नहीं रहा कि मैं कब से अपने ही घर में हतप्रभ खड़ा हूँ और लगातार उन्हें कौतूहल से देखे जा रहा हूँ | जमाल की बीवी ठेठ देहाती अंदाज़ में सोहर की पारम्परिक धुन में कुछ साथ साथ गुनगुना भी रही थी | संगीत का रसिक ठहरा , सो ध्यान से सुनने लगा ...
तिरिया के जनमे कवन फल हे मोरे साहब ,    पुतवा जनम जब लेईहें तबै फल होईहैं |  पुतवा के जनमे कवन फल हे मोरे साहब ,     दुनिया अनंद जब होई तबै फल होईहैं || '' अब्बा ! मिठईया त अब ले नाहीं आइल .........जमाल का एक बेटा चीखा | अब तक माजरा मेरी समझ में कुछ कुछ आने लगा था | कमरे की एक दीवार के कोने से दुसरे कोने तक चाइनीज़ झालरों की लड़ी , दरवाज़े पर पारंपरिक हिन्दू विधान में सजी बंदनवार , अंदर झूमर टांगने वाली खाली जगह से ज्यामितीय आकार में सजायी गयी रंगीन गुब्बारों की लड़ियाँ , बीच में एक छोटी चौकी जिस पर लाल शनील बिछी हुई थी कुछ रखे जाने के इंतज़ार में  ......| पूरा घर भूने जा रहे मसालों की खुशबू से सराबोर , बच्चों की चिल्लपों , पत्नी के अलावा घर में दोतीन और महिलाओं का अतिरिक्त व्यस्तता में लगातार इधर से उधर आना जाना अच्छा भी लग रहा था पर कही कुछ बुरा भी |घर की तमाम महंगी चीज़ों की दुर्गति करते जमाल के बच्चों देख मेरा मध्यवर्गीय मन लगातार आहत हो रहा था , अपने ही घर में  बेबसी का ऐसा आलम कि खुदा खैर करे ....! | तब अचानक  पत्नी की आवाज़ मेरे कानों में पड़ी , वो मुझ से ही मुखातिब थीं .....कुछ बता कर तो दफ्तर गए नहीं थे कि आज शाम को क्या होना है , कैसे होना है  ? आज जब विशु स्कूल से लौटा तो बहुत उत्साहित था अपने जन्मदिन को लेकर ., आते ही पूछा , ''आज शाम के फंक्शन में किस किस को बुलाना है , मैं अभी जाता हूँ और कालोनी में और कुछ अपने दोस्तों को इनवाईट कर आता हूँ | हाँ , इस बार बड़ा वाला ही केक काटेंगे , पापा को फोन कर दो कि ऑफिस से लौटते वक्त वैसा ही बड़ा वाला केक मोडला बेकरी से लेते आयेंगे जैसा शुभम भैया ने काटा था | और तुमने भी फिर फोन क्यों नहीं किया , मैंने पूछा | झल्लाते हुए पत्नी बोली अरे ! सिर्फ केक ही तो नहीं कटना होता है कितनी तैयारी भी तो करनी पड़ती है , कुछ तय पहले से हो तब ना फोन करती ......मैंने पूछा , तब ये सब क्या हो रहा है ? ये लोग यहाँ क्या कर रहे हैं | पत्नी ने  तफसील से बताया कि आज अचानक करीब तीन बजे रिक्शे से जाने वाले सभी बच्चों को छोड़ने के बाद जमाल आया और कहने लगा मैडम जी ! आज बाबू का जन्मदिन है , शाम को आपके यहाँ बहुत काम होगा , बाहर से मेहमान आयेगे , गाना बजाना , खाना पीना सब होगा , आप बुरा न माने तो मैं अपने बीवी बच्चों को जब कहें तब भेज दूंगा , आपकी मदद हो जायेगी | मैंने उदास मन से उसे बताया कि नहीं आज कुछ नहीं होना है , सुबह ऑफिस जाने से पहले इस बात पर चर्चा तो हुई थी पर कुछ भी डिसाइड नहीं हुआ |हालांकि विशु जिद कर रहा है लेकिन इतनी जल्दी किया भी क्या जा सकता है | शाम को मंदिर चले जायेंगे , विशु को भगवान का दर्शन करा देंगे बस | तुम परेशान मत हो , अभी घर जाओ , कोई जरूरत होगी तो जरूर बताएँगे | इतना सुन कर जमाल चला गया और एक ही घंटे के बाद अचानक पूरे परिवार के साथ आ गया , कहने लगा - मैडम आप बुरा मत मानियेगा , आज बाबू का जन्मदिन है , ऐसे मुकद्दस मौके पर बाबू को दुखी मत कीजिये , आप बाबू को मंदिर दर्शन करा लाइए , लेकिन जनम दिन भी उसका जरूर मनाया जाएगा , पूरी खुशी से.........साल में एक ही तो दिन आता है और इस मुबारक मौके पर बाबू को दुखी करना गुनाह है गुनाह ! मेरे पास उसके इस तर्क का कोई जवाब न था , मैंने हामी भर दी , इधर स्वीकार में मेरे मुँह से ' हाँ ' निकला ही था कि उधार जमाल और उसका पूरा परिवार समारोह की तैयारी में लग गए | नतीजा , तुम देख ही रहे हो , करीब पचास साठ लोगों का नाश्ता खाना तैयार होने को है , पूरा घर भीतर बाहर सजा दिया गया है | और जमाल की दूसरी बीवी गाती बड़ा अच्छा है , कह रही थी आज तो वो कई सोहर गाने वाली है | खैर , मिठाइयां आई , केक काटा गया नाश्ता खाना हुआ और इसके बाद माहौल बच्चों की धमा चौकड़ी के बाद जब कुछ थिराया तो जमाल ढोलक ले कर बैठा उसकी एक बीवी मजीरा लेकर बैठी , सोहर शुरू हुआ ...एक के बाद दूसरा फिर तीसरा और फिर ..........जीवन में पहली बार ऐसा समारोह देखा , परंपरा और आधुनिकता का अद्भुत फ्यूजन , माहौल ऐसा हुआ जैसा जीवन में पहले कभी घटित नहीं हुआ | धीरे धीरे रात गहराती गयी , ढोलक की थाप और सोहर के सुर मद्धम पड़ने लगे |धीरे धीरे सब विदा हुए | सब लोग एक एक कर चले गए , बच्चे भी बिस्तर पर लुढक गए पर मेरी आँखों में नींद कहाँ ? मैंने पत्नी से पूछा , ये अचानक जमाल और उसके पूरे परिवार को ऐसा क्या हो गया कि पिछले दस महीनों से , जब से हम इस मोहल्ले में आये हैं वह विशु को स्कूल पहुंचा रहा है पर मजाल है कि उसने घर की चौखट के भीतर कदम भी रखा हो , महीने का पैसा भी लेना होता था तो गेट पर ही खड़ा रहता था | आज उसका, ये बदला हुआ रुख कुछ समझ में नहीं आया .........| आज दिन में कुछ हुआ था क्या ? मैंने पूछा , पत्नी ने मेरा हाथ अपने हाथों में लिया कहने लगीं कि आज जब तुम ऑफिस चले गए थे तब मैं भी इसी उधेड़बुन में थी कि आज शाम को विशु का जन्मदिन कैसे मनाया जाएगा | विशु करीब डेढ़ बजे स्कूल से लौटा  , रिक्शे की आवाज़ सुन कर मैं बाहर आयी | मेरी समझ में कुछ नहीं आया रहा था फिर भी  मैंने जमाल को रोका , भीतर गयी पर्स खोला , १०१ रु निकाले , बाहर जमाल को देते हुए मैंने कहा यह रमजान का मुकद्दस महीना चल रहा है , आप पांच वक्त के नमाज़ी है , इस माहे पाक इतनी मेहनत करते हुए भी रोज़े पर हैं | आज शाम आप इन्ही पैसों से मिठाइयां खरीद कर अपना और अपने परिवार में जो भी रोज़े से हैं उनका  रोज़ा खोलियेगा | एक इल्तेज़ा और कि,  इस माहे पाक में मेरे बेटे की बरक्कत और सलामती की दुआ कीजियेगा आप खुदा के नेक बंदे हैं उपरवाला आपकी दुआ जरूर क़ुबूल फरमाएगा इस बात का पूरा यकीन है मुझे | इसके बाद मैंने देखा वह इतना खुश हुआ कि खुशी से उसकी आँखे भर आई | उसने कहा तो कुछ नहीं , मुड़ा और आँखे पोंछते वापस हो लिया | उसके बाद जो कुछ भी है वह तुम्हारे सामने है |कैफी साब के अलफ़ाज़ हौले हौले हम दोनों पर तारी होते जा रहे थे .......'' आँखों में नमी हंसी लबों पर , क्या हाल है ,क्या दिखा रहे हो ....".........देर रात तक नींद का आसरा देखता रहा , जमाल की बीवी का सोहर अपनी शक्ल साफ़ करता जा रहा था ...''...........  दुनिया अनंद जब होई तबै फल होईहैं......





(एक )

गुरुत्वाकर्षण कम था
या धरती से मोह भंग
पता नहीं .......

मेरा ही कोई दोस्त था .....नील आर्म स्ट्राँग
लंबे लंबे डग भरता
निकल गया
मैं तकता रह गया
उम्मीद के उस टुकड़े को
जो कभी चाँद सा चमकता था
गहरी उदास रातों में
निकलता नैराश्य के अँधेरे गर्त से
उजास की तरह
और फ़ैल जाता
चला गया एक दिन

हाँ , खबर तो यही थी
तस्वीर भी छपी थी
उस रोज
कि मेरे उसी दोस्त ने
झंडा गाड़ दिया
मेरे चाँद पे ,
उसकी धरती ने जीत लिया
मेरा चाँद

यहाँ ,
चिलचिलाती धूप में
कोई झंडा नहीं दीखता
दीखता है
सगुन का बांस
उसपे फहराता झंडा  
जिसे कभी गाडा था हमने .....
कुआं खोदने के बाद
गाँव में ...

हम बदल रहे थे
धरती का रंग
वो जीत रहा था
एक बंजर जंग
वो आसमां से भी ऊँची
छलांगें लगा रहा था ,
और हम जमीन पर
चल रहे थे
वो बदल चुका था
और हम ,
बदल रहे थे
वो बूझ रहा था पहेलियाँ
हम जिन्दा सवाल हल कर रहे थे


 (दो)

नील ! जब से तुम्हारे
पाँव पड़े हैं चाँद पर
तब से ही कहीं लापता है
वो चरखा चलाती बुढ़िया
कहाँ गयी होगी .....
किसी अन्य ग्रह पर
या होगी यहीं कहीं , पृथ्वी पर
कांपते हाथों से फूल चढाते
उस बूढ़े की समाधि पर
जो जीवन भर कातता रहा सूत
चलाता रहा चरखा........
स्मृतियाँ खींच लाई हो उसे पृथ्वी पर
तो क्या बुढ़िया को
ये भी पता चल चुका है !
कि उसके बूढ़े को मारने वाला
अब तक फरार है ,
उस की तलाश में
कहाँ कहाँ भटकेगी ,
साबरमती तट तक भी
क्या वो जायेगी
जहां ले रखी है उसने शरण
आजकल
तो क्या नील
तुम ने उसे सब कुछ बता दिया  ......

या फिर ऐसा
तो हो ही सकता है
इतिहास दोहराने की कोशिश की हो तुमने
निर्जन चाँद पर बदहवास जान हथेली पर लेकर
तुम्हारी नज़रों से बच बचा कर
चोरी छिपे सवार हो गयी हो यान में
और आ गयी हो पृथ्वी पर
खड़ी हो वहीं
करबद्ध , संपीडित स्वजनों में
आँखों की कोरों में बांधे
शताब्दियाँ का ज्वार ,दुर्निवार
स्टेच्यु ऑफ लिबरटी के गिर्द
शोक सभा में .........

कि पता चला चुका हो उसे नील
तू  कोलंबस का ही वंशज है
और चाँद पृथ्वी के बाद
अमरीका का दूसरा उपग्रह है........

मंगलवार, 17 जुलाई 2012


उन तमाम बुजुर्गों को समर्पित जो नितांत अकेलेपन में जी रहे हैं ,मर रहे है या मार दिये जा रहे हैं ....

·
उनके दुपट्टे की गिरह उनके गले में लगाए क्यों
जब बदनसीबी नसीब हो तो अपने क्यों औ पराये क्यों

मैं ये जानती थी जिंदगी और मौत सब मेहमान है
मेरे आस्ताँ में आये तो वो इस तरह से आये क्यों

हम कारकुन हैं जमीन के यही पर गुजारी जिंदगी
कोई अजनबी सी है कज़ा वो आसमान से आये क्यों

एक हादसा सा गुजर गया मेरी जिंदगी के मकान में
जो बन पड़ा वो सब किया तब इस तरह कोई जाए क्यों

मुझसे कज़ा की शान में गुस्ताखिआं कुछ हो गयीं
पर वो रकाबत इस तरह मेरी जिंदगी से निभाए क्यों

मैं बदनसीब बुजुर्ग थी, तेरे निजाम के आसरे
मेरा हश्र देख जवाब दे ,न लगाए इसमें आग क्यों

बेचारगी ऐसी ही थी जिस तिस को देखा बुला लिया
क्यों न बुलाती ऐ कज़ा मेरी गली तू आये क्यों

बुधवार, 11 जुलाई 2012


प्राण पिक कुछ बोल रे................. (1984 यानी १२वीं पास किया ही था तब मैंने ....... .....)
by Pankaj Mishra on Wednesday, April 18, 2012 at 11:35pm ·
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                        क्यों मौन है मुख खोल रे 
                        प्राण पिक कुछ बोल रे.....
अध् खुली पलकें तुम्हारी 
अध् खिलीं अलकें तुम्हारी 
कह रही कुछ गुनगुन गुन
प्राण पिक तू ध्यान से सुन 
क्या मिला सन्देस रे.......... 
                         क्यों मौन है मुख खोल रे 
                         प्राण पिक कुछ बोल रे....
तू रूपनगर की सीमान्त
मैं बटोही व्यथित क्लांत
घन श्याम है विश्राम कर लूं
उर व्यथित आराम कर लूं
जड़ अधर कुछ डोल रे........
                            क्यों मौन है मुख खोल रे 
                            प्राण पिक कुछ बोल रे..... 
मैं मन मयूर बन आया हूँ 
तेरे इस जीवन कानन में 
मैं कब का प्यासा बैठा हूँ 
दो बूँद की खातिर सावन में
तू अपनी अलकें खोल रे.....  
                           क्यों मौन है मुख खोल रे 
                           प्राण पिक कुछ बोल रे......
तुम मृगतृष्णा सी आयी हो
मै मृग सा कुछ भरमाया हूँ
तुम कस्तूरी सी छाई हो
मैं गंधी बन पछताया हूँ
उर जीत लिया बिन मोल रे....
                            क्यों मौन है मुख खोल रे 
                            प्राण पिक कुछ बोल रे..... 
तुम मेरी प्रियतर कविता हो 
नव आयामों की अन्विता हो
मैं खुद से लड़ लड़ हार गया
तुम चिरविजयिनी,अपराजिता हो
ध्वनि भावों में घोल रे........
                            क्यों मौन है मुख खोल रे 
                            प्राण पिक कुछ बोल रे...... 


तुम न बोलोगे ...
by Pankaj Mishra on Sunday, February 5, 2012 at 10:29pm ·
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तुम न बोलोगे ,
तुम न बोलोगे
तो क्या,
कुछ भी समझ न आएगा 
तुम न खोलोगे ,
तो क्या,
सब राज ही रह जाएगा

बोलती हैं आँखे, 
और 
बोलती है देह भी

बोलते हैं शब्द 
और  
बोलता है मौन भी

मैं भी चुप
और
तुम भी मौन
इस गहन नीरव को
फिर ये
तोड़ता है कौन

कितने दुःख 
संग संग है बांटे 
कितने बंधन साथ काटे
फिर यकायक
साथ ऐसे
छोड़ता है कौन

अपने हाथों की लकीरें 
गौर से देखो कभी 
जिंदगी को 
इस भंवर में
मोड़ता है कौन

है अगरचे, रात काली 
भोर से पहले,
मगर 
शाम का सूरज,
सुबह से 
जोड़ता है कौन...  

मैं ....एंटीलिया
by Pankaj Mishra on Friday, February 3, 2012 at 12:17pm
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समय की अदालत में 
सदी का मुकदमा
आखिरी पेशी  
      मुकदमा
यूनियन ऑफ इंडिया 
       बनाम
     एंटीलिया

सिर्फ
टिक टिक .... क्लिक क्लिक
क्लिक क्लिक......टिक टिक
एंटीलिया..........!
हाज़िर हो....!
हाज़िर हूँ......!  मी  लार्ड ..

एंटीलिया.. !
अब जबकि,
तुम पर आयद सारे आरोप 
साबित हो चुके हैं
सजा सुनाये जाने से पहले 
तुम्हे कुछ कहना है 
जी , जी हुज़ूर ,
तो ,हलफ उठाओ !....एंटीलिया.!
मैं... एंटीलिया...
इतिहास को साक्षी मान 
अपने पूरे होशो हवास में ,
जो कहूँगी , सच कहूँगी
सच के सिवा कुछ नहीं कहूँगी 
मैं..एंटीलिया ,
हाल मुकाम.......इन्डिया
बयान करती हूँ ,
यह कि ,

मैं पूँजी के वैभव की
ऐश्वर्य की प्रतीक हूँ
उसके गुनाहेअज़ीम में
बाकायदा शरीक हूँ

मैं सदी के सबसे
दौलतमंद की ख्वाहिश हूँ
मैं किसी बेगैरत के
घमंड की नुमाईश हूँ
मैं दौलत की मशक्कत से
आजमायी हुई साज़िश हूँ 
मै किसी दौलतमंद की
अजीम्मुशान रिहाईश हूँ

मैं,दौलत की बुलंदी का
जिन्दा मुकाम  हूँ
तमाम लूट ओ खसोट का
हलफिया बयान हूँ

मैं आवारा दौलत का
लहराता हुआ परचम हूँ  
मैं हवस की किताब में 
सोने का कलम हूँ

मैं मुल्क के सीने में दफ्न
खंज़र की मूठ हूँ
मै इस जुल्मी निजाम का
सबसे, सफ़ेद झूठ हूँ

मैं तमाम शहरियों की
हसरत हूँ , टकटकी हूँ
कितने ही मेहनतकशों की
कुर्बान जिंदगी हूँ

मैं दिलफरेब बहुत हूँ 
लुभाती भी बहुत हूँ  
सपनो में आ आ के
सताती भी बहुत हूँ

मैं जागता सपना हूँ, 
उनसे , भागता सपना हूँ 
प्रबंधन के विशेषज्ञों की
कोरी प्रवंचना हूँ

मैं ही,आज ताकत हूँ 
सत्ता हूँ ,प्रतिष्ठा हूँ ,
इस जुल्मी हुकूमत की
नायाब सफलता हूँ

मैं कोरी औ खोखली
भावुकता , नहीं जानती 
सम्वेदना हो ,शील हो ,
किसी को नहीं पहचानती

मूल्यों के मकडजाल से
कब की उबर चुकी हूँ
ऐसे तमाम रास्तों से
निःसंकोच गुजर चुकी हूँ

मैं, कंधे पर पाँव रख
बढ़ जाना जानती हूँ  
हुक्काम की दराज में
दुबकना भी जानती हूँ 

झगड़ना भी जानती हूँ
अकडना भी जानती हूँ
आये कोई मौका, तो
पकडना भी जानती हूँ 

समझौता भी जानती हूँ ,
कुचलना भी जानती हूँ 
मचलना भी जानती हूँ ,
तो,छलना भी जानतीहूँ

मैं,आघात जानती हूँ
प्रतिघात जानती हूँ
मासूम मुफ़लिसी से
विश्वासघात जानती हूँ

शातिर ओ मक्कार हूँ
मैं कौम की गद्दार हूँ,
मतलब की यार हूँ, 
मैं ,कुशल फनकार हूँ

मंच से कभी, तो
नेपथ्य से कभी 
विभ्रम से कभी, तो 
असत्य से कभी 
लुब्ध कर सकती हूँ ,
मुग्ध कर सकती हू

भूकम्प से बच सकती हूँ
तूफां से निकल सकती हूँ  
बमों की बौछार हो 
गोलियों की मार हो   
सब को झेल सकती हूँ 
पीछे ,ढकेल सकती हूँ

रेशमी अहसास हो
भोले भले जज़्बात हो 
ऐसे खिलौनों को तो 
यूँ चुटकी में,तोड़ सकती हूँ

मै निष्ठुर हूँ, निर्लज्ज हूँ 
निरंकुश  हूँ ,नृशंस हूँ

मैं जज्बाती नहीं 
किसी की साथी नहीं
मैं..... एंटीलिया
सिर्फ खुद से प्यार करती हूँ
सिर्फ खुद से प्यार करती हूँ

बयान पूरा हुआ ...मी लार्ड !
समय की अदालत में
इतिहास को साक्षी मान ,
दुरुस्त होशोहवास में 
बगैर जोरोजबर 
दस्तखत बना रही हूँ

ताकि सनद रहे ........
                               एंटी...लिया
                            हाल मुकाम इन्.......या        

मंगलवार, 10 जुलाई 2012


विजयदशमी का प्रतिपक्ष
..............................................................
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कौन मरा था त्रेता में ,
जो मैं, जश्न मनाऊ
कौन हो तुम ? जिस के स्वागत में ,
घी के दिए जलाऊ !!

चारण कवियों का सम्मोहन
धीरे धीरे छूट रहा
मिथकों का इतिहास से नाता
खंड खंड हो टूट रहा

इश्वर हो नश्वर हो,
मिथक हो इतिहास हो
राजा हो प्रजा हो,
आस्था हो विश्वास हो
वर्तमान के विवेक अनल में
युग सत्य को जलना होगा
नश्वर हो , नारायण हो,
तर्क बुद्धि की उबड़खाबड़
राह पे चलना होगा

इतिहास जेता के रथ की
पिटी लीक नहीं
तो और क्या है
रामायण और मानस सारे
अन्नदाताओं की भीख नहीं
तो और क्या है

वो असुर अधम था,
त्रैलोक्यजित था,
वो जो भी था
वो था नश्वर ही
तुम अवतारी ,पूज्यनीय हो ,
हो आखिर तो, इश्वर ही
वो कौन रावण था
जिसकी शक्ति अद्यतन उपस्थित है
तुम काहे के राम
तुम्हारी मर्यादा,अतुलनीय शक्ति
क्यों काल बाधित है

हो सकता है ,रण में,
जिसको मारा हो
कोई और रावण ,बेचारा हो
किसी मंदोदरी का पति,
किसी मेघनाद का पिता हो
या, हो किसी 'विभीषण' का भाई
जिसने कोई कुत्सित
राजनीतिक साज़िश हो रचायी 
और हुआ हो तुम्हारा
उससे पूर्ण सचेतन समझौता
इश्वर की पदवी मिली तुम्हे , संग में सीता
एक विरूप विभीषण ने बदले में पायी सत्ता
कलिकाल हो या हो त्रेता
सार्वकालिक ,सत्ता का सौदा
सार्वकालिक है शांति सेना ,
सार्वकालिक विभीषण
सार्वकालिक है छद्म शांति
और, सार्वकालिक है रण
कि विभीषण अब भी मरा नहीं
उससे खाली ये धरा नहीं, 

तो फिर ,
वो कौन मारा गया था ?
जिसका न कोई पहचान पत्र
बरामद हुआ, मौका ए वारदात से
और न ही दर्ज है कोई बयान
या फिर, अंगुलिओं के निशान
अत्याचारी, अपहर्ता का अमृत
किसके तीर ने सोखा
कहाँ है, उसका लेखाजोखा
किस प्रचार वाहन से ,उदघोषित हुआ
किस प्रचार तंत्र से ,किस प्रचार मंत्र से
युग युगांतर तक फैला
क्या तुम्हे याद है वो मंत्र ??
या तुम्हारी ही इजाद है ,
आधुनिक प्रंचार तंत्र
काल के किस पथ पर,
इतिहास के विजयरथ पर
हो सवार.......
किसी जेता कि हुंकार..
सुदूर ,सागर के उस पार
एक अत्याचारी ,अपहर्ता...मारा गया......
आदेश हुआ.....जश्न मनाओ !
मनायाया......
जेता घर आ रहा है...दीप जलाओ !
जलायायाया....
जलाते आ रहे हैं...
लेकिन, कब तक ?

हम,
इस इक्कीसवी सदी में
एक फर्जी एनकाउंटर के गवाह
कैसे हो सकते हैं ?
किसी भेदिये की
खुफिया सूचना पर हुए
संहार के इर्दगिर्द
एक सम्मोहक इंद्रजाल ,
कैसे बुन सकते हैं ? 
हम, कैसे कर सकते है, करताल
रामलीला मैदान मे एकत्र हो
साल दर साल ,लगातार
फर्जी एनकाउंटरो की त्रेता युगीन परंपरा
आज भी जारी है
विभीषण तब भी भारी था
विभीषण आज भी भारी है

अब जबकि,
रावण के अस्तित्व का प्रमाण
रोज ब रोज,मिल रहा है
हे राम ,क्षमा करना !
तुम्हारी तो पैदाइश का मुकाम भी
इतिहासविदों और न्यायाधीशों को
इतने वर्षों से ,
जाने क्यों ,नहीं मिल रहा है
तुम्हारा वजूद
एक मुकदमा है,
जो चल रहा है ...छल रहा है ......
एक रावण है जो बेचारा
आज भी तिल तिल  
जल रहा है....................................................पंकज 
.


कुछ बीज है शब्दों के
रोप रहा हूँ
कविता के हल की मूठ थामे
साहित्य का खेत
जोत रहा हूँ
जीवनी शक्ति होगी
तो अंखुआ ही जायेंगे शब्द बीज
कुछ भूख मिटायेंगे
कुछ अगली फसल के लिए
बचा कर रख लिए जायेगे
इतना ही चाहिए
इनाम में ........
हल की मूठ थामे
सोच रहा हूँ
घाम में .............

हे हिग्स बोसान 
.....................
........................................................................


सुनो, सुनो, गाँव वालों ,सुनो !


ब्रम्हांड कैसे बना
कैसे आया चीजों में
द्रव्य मान 
राज़ खुल गया है 
सृष्टि का स्वामी महान 
पाताल में फिर
अवतरित हुआ है 
अज्ञान की क्षय हो
हिग्स बोसान की ! 
जय हो , जय हो !


हे हिग्स् बोसोन !
ये क्या हुआ 
एक ही तो था अनश्वर 
क्योंकर मार दिया ......
दुःखकातर हो गरीब 
अब किसको गोहरायेगा
डायरिया से मर रहा
दिमागी बुखार में तड़प रहा 
बच्चा अब तुम्हारा नाम 
जपने से बच जाएगा....


ये बोसान कोई
बड़ा साधू है ,बाबा है ,
क्या है ??
या उल्टी बुखार दस्त की
कोई नयी दवा है 
इसका डोज़ कैसे लूं 
चूरन जैसे चाटूं
या गुनगुने पानी के साथ पी लूं 
बाबा की तस्वीर
काले धागे में बाँध लटका लूं 
या स्नान के बाद 
एक सौ आठ बार ध्यान करूं
क्या करूं ..........


हे बोसान ! 
पाताल से कब उपराओगे 
धरती पर कहाँ डेरा जमाओगे
बस एक बार
दर्शन दे कर तार दो 
इस दारुण कष्ट से 
अब तो उबार दो 
तुम्हारा पहला सत्संग 
कहाँ होगा बता देना 
इतना बस प्रवचन में
हम सबको समझा देना 
ये जनम जनम की गरीबी
किसका छल है
हमारे पूर्व जन्म के
किन कर्मों का फल है 
या इसके पीछे भी 
कोई गाडपार्टिकल है ................
........................................पंकज ...

मंगलवार, 3 जुलाई 2012

माँ ....


माँ ! तुम्हारी छवि
एक कुहासा है
पार इस के
कोई ,कहाँ जा पाता है
मैं, आ रहीं हूँ
कुहासे के उस पार
जहां
तुम होगी और मैं
खुल कर बातें करेंगे
जैसे बात करती है
एक स्त्री दूसरी से
बेपर्दा .......

माँ !
मेरे लिए तुम रही
एक छवि शाश्वत
ज़रा देखूं
आज इसे उलट
तुम्हारा घूंघट
तुम्हारा वास्तव
किस धातु का बना है  
तुम्हारा बिछुवा , कंगन
सारा का सारा आभूषण
कैसा है ??
युगों से ठहरी झील का  
स्वेद अश्रु  मिश्रित सान्द्र अम्लीय विलयन
इस अम्लराज  में
सब घुलता आया है ,अद्यतन
घुलती रहीं
बड़ी होती बेटियाँ
स्त्री में संस्कारित होने से पूर्व
एक अदद प्रसंस्कृत माँ
होती रहीं बेटियाँ

माँ
तुम्हारे रक्त मांस का
एक हिस्सा हूँ मैं ....
अपने स्त्री रूप में इतनी
अघुलन शील क्यों
क्यों नहीं घुल पाती
इस अम्लीय विलयन में
निथर निथर आती हूँ
फांस सी अटक जाती हूँ
तुम्हारे मन में
त्याग और ममता का शाश्वत आवरण भी
अब अक्सर ,उतर जाता है
कोई अनजाना अनचीन्हा भयानक
चेहरा नज़र आता है
जिसकी अँगुलियों के नाखून
कितने बड़े हैं
और मेरे कलेजे पर भी
फफोले पड़े हैं
आखिर किस धातु के गहने
फिर मुझे सौंप रही हो
मुझे नहीं चाहिए
अब ये बोझ किसी स्त्री को
ढोना नहीं चाहिए
मुझे तो बस
उस धातु शिल्पी का
पता बता दो
उस रसायनज्ञ की
प्रयोगशाला का अँधेरा
कोना दिखा दो
यह जिज्ञासु मन
जानना चाहता है
धातु कर्म की किस जटिल रासायनिक क्रिया ने
इन् धातुओं का निर्माण किया   
जिनका गलनांक
तर्क और विवेक के ताप से परे है
इनमे कौन से हीरे मोती जड़े हैं
भट्ठीयों के तापमान नियंत्रण का
सलीका क्या है
हे महान धातु कर्मियों
तुम्हें अंतिम प्रणाम करने का
तरीका क्या है ......

मैं,
जा रहीं हूँ ....माँ
तुम्हारे कंगन उतार
कुहासे से पार
उस लोक  में
जहां स्त्रीत्व है , मातृत्व है , ममता है
पर माँ नहीं है .........
हाँ नहीं है ......


रविवार, 1 जुलाई 2012


जरा................झर......ज़रा ज़रा


हर रोज , मुंह अँधेरे , बड़े करीने से
स्वाभाविक सहजता से सहेज ,
सरका दिया जाता हूँ
किसी अँधेरे , अपश्य आंतर में
अलस्सुबह ,
क्यों किया जाता है , ऐसा
किस से अलक्षित किया जाता हूँ ,
क्या है.. जो दिवस से ,
बोल दूंगा
क्या छिपाना है जिसे ,
फिर खोल दूंगा,
कल तक ,
सबसे अभिन्न अविभाज्य
अब क्यों हुआ
विच्छिन्न त्याज्य
छत पे जाती सीढ़ियों के नीचे,
जो टूटी खाट है
वो ही तुम्हारा और हमारा घाट है

तुम हो .........इस घर का कूड़ा
मै अभागा ......... घर का बूढा

एक ही है तुम्हारी और मेरी व्यथा
एक सा जीवन,एक जैसी ही कथा

भीतर अपने ये क्या क्या समेटे हो
टूटे बल्बों के टुकड़े
मेरी चाँदनी चादर के चीथड़े ,
सब के सब लपेटे हो
टूटे टुकड़े चूडियों के,
कुछ धूसर धागे , अभागे ,
धूल मिट्टी में पगे,
न जाने और क्या क्या
लपेटे.....कब से लेटे हो
इसमें हमारी ही बुझी हुयी दो आँख है
टूटने , बुझने , से पहले हुआ करती थी,
इन्ही बल्बों में ,
पीली पकी सी रौशनी ,
इस बूढ़े रोशन दान की
जर्जर झिर्रियों से
कभी आती थी
सूने घर में रौशनी
झिलमिलाते वक़्त की ,
झिलमिलाती झिर्रियों से,
झर झर , झर गयी , जर्जर रौशनी,
मेरा दूधिया समय,
पियरा गया
आँखों से एक दिन जो टपका लहू
पथरा गया ............

और ये ,
मटमैला मोटा चीथड़ा सा ,
क्या लपेटे हो
मेरी चांदनी चादर पुरानी ,
क्यों समेटे हो
ओढता था सारा कुनबा जिसे,
उन , सर्दियों की शामो में
बस इसी का तब,
एक आसरा था
प्राईमरी के मास्टर के पास , कहाँ
सबके लिए ,
कम्बल धरा था
बाद फिर वो ,
घर का पोछारा रह गया
धूल मिट्टी , दाग धब्बे
साफ़ करता , पोछता
सर्दियाँ ओढ़ी थी सबकी ,
धूल माटी ओढता
बूढ़ा हो गया...,..घर का कूड़ा हो गया

कुछ काली सफ़ेद उलझन सरीखी हैं दिखी
समय के धूसर धागों में धंसी ,
कुछ लटें उलझी , अनसुलझी
कुछ वैसी ही जो ,
एक अभागी बुढ़िया ,
रोज रात सुलझाती थी,
हरदम , सोने से पहले
बस उस एक रात
वो क्या सोयी ,
मेरे सोने जाने से पहले
हमेशा के लिए सुलझ गयी,
मेरे , दो बूँद रोने से पहले

उन दो बूंदों का कर्ज ,
बहुत सालता है
बूँद बूँद सा , अंतर से ,
उतर आता है

और जो ,
लाल हरी चूडियों के चमकीले टुकड़े पड़े है
वो तभी से मेरे सीने में गड़े है
हाँ सधवा ही मरी थी,
और तब ,
वो लाल थी, हरी थी
याद करती आज तक उसको ,
जो मेरी डायरी थी
उसको भी
मैं तुममे देख रहा हूँ

कल रात ,
पुरानी डायरी के पन्ने ,
पढते पढते , भीज गए थे
गीली , सीली स्मृतियों से
सीझ गए थे
अक्षर कुछ काले , कुछ नीले
काले कठुआये , काठ हुए
नीले , अब भी सपनीले थे
दो बूँद पड़ी तो पसर गए
रात, मेरे बिस्तर में , गिरकर लसर गए
बरसो बाद , हम दोनो सोये साथ साथ
बरसों बाद देर से जागा हूँ ......

मुंह अँधेरे जब सो रहा था ,
किसने करीने से ,
इसे सरका दिया
इस अँधेरे अपश्य आंतर में
मेरे रहते , ये जघन्य
मेरे ही घर में
तुम, अपने पास इसे ,
कैसे रख सकते हो
समय कर न सका जो ,
तुम कैसे कर सकते हो
यही तो एक तीसरा बल्ब है
जो भीतर अब तक
जल रहा था
इसी एक सपने के साथ तो
जीवन पल रहा था
ये कैसे कूड़ा हो गया ?

क्या सब कुछ
कूड़ा हो सकता है
सपना भी क्या
बूढ़ा हो सकता है ?

अब भी इस सूने घर में
उम्मीदों के छौने , खेल रहे हैं
वो छुम्मक छुम्मक आएंगे
कुछ तुम संग वो खेलेंगे ,
कुछ मुझसे भी बतियाएंगे
देखो , कैसे वो करकट से
कुछ खोज बीन
तेरे सरमाये से छीन छीन
जीवन के , मरघट तक लायेंगे
टूटे बल्बों के टुकड़ों से ,
गुडिया की आँख बनाएंगे
उसके दोनों सूने हाथों को
फिर चूडियाँ पहनायेंगे
चांदनी चादर की दुशाला से
बिखरे हुए मनकों की माला से
फिर से उसे सजायेंगे
मेरे कंपकपाते हाथों के झूले में दे,
मुझ से ही फिर , झुलवायेंगे
इस बूढ़े कूड़े की
नीली कुम्हलाई , लोरी
संग संग गाते , तुतलाते
गुडिया को,
फिर मुझ से ही सुलवायेंगे

तुम देखना,
उस गुडिया को
मैं अब यूँ न सोने दूंगा
अपने सोने से पहले
अब कोई
कर्ज न रहने दूंगा ....
फिर हम दोनों दुखिआरे ,
इन्ही उम्मीदों के सहारे
संग स्वप्नलोक में जायेंगे
पार... तिमिर के.......
जीवन-शिविर के ..... ..
पास अनुभव तप्त मिहिर के
आज वो बुला रहा है
उम्मीद का छौना
फिर नींद में मुस्का रहा है
आज कोई आ रहा है ....

माँ



माँ ! तुम्हारी छवि
एक कुहासा है 
पार इस के
कोई कहाँ जा पाता है
मैं आ रहीं हूँ
कुहासे के उस पार
जहां तुम होगी
और मैं
खुल कर बातें करेंगे 
जैसे बात करती है 
एक स्त्री दूसरी से
बेपर्दा .......

माँ
नजदीक से छूना है
तुम्हारा घूंघट 
देखना है तुम्हारा वास्तव 
शाश्वत छवि उलट 
जानना है 
किस धातु का बना है 
तुम्हारा कंगन ,तुम्हारा बिछुवा
तुम्हारे सारे आभूषण 
तुम्हारे स्वेद अश्रु के सान्द्र विलयन में 
सब घुलता आया है अद्यतन 
तुम्हारे रक्त मांस का
एक हिस्सा हूँ मैं ....
तब इतनी
अघुलन शील क्यों
अपने स्त्री रूप में ...
क्यों नहीं घुल पाती
इस खारे विलयन में
क्यों फांस सी अटक जाती हूँ 
तुम्हारे मन में 
त्याग और ममता का आवरण भी 
अब तो अक्सर
उतर जाता है 
कोई अनजाना अनचीन्हा भयानक 
चेहरा नज़र आता है 
तुम्हारी अँगुलियों के नाखून भी
कितने बड़े हैं
मेरे कलेजे पे भी तो 
फफोले पड़े हैं
आखिर किस धातु के गहने 
फिर मुझे सौंप रही हो
इस बोझ को ढोना नहीं चाहती 
अब और रोना नहीं चाहती  
किन युगों में
धातु कर्म की किस जटिल रासायनिक क्रिया ने
इन् धातुओं का निर्माण किया  
जिसका गलनांक
तर्क और विवेक के ताप से परे है 

मैं 
उस शास्त्र को
उन शास्त्रियों को 
प्रणाम करना चाहती हूँ 
और उनकी इजादों को भी 
अंतिम प्रणाम ......

मैं,
आ रही हूँ.. माँ
तुम्हारे कंगन उतार 
कुहासे से पार
जा रही हूँ .......माँ 


ज़िंदा सवाल ......


..........................................................................
गुरुत्वाकर्षण कम था 
या धरती से मोह भंग 
पता नहीं 
मेरा ही कोई दोस्त था .....नील आर्म स्ट्राँग
लंबे लंबे डग भरता  
निकल गया 
मैं तकता रह गया 
उम्मीद के उस टुकड़े को 
जो कभी चाँद सा चमकता था 
गहरी उदास रातों में 
निकलता नैराश्य के अँधेरे गर्त से 
उजास की तरह
और फ़ैल जाता 
चला गया एक दिन 


हाँ , खबर तो यही थी 
तस्वीर भी छपी थी 
उस रोज 
कि मेरे उसी दोस्त ने 
झंडा गाड़ दिया
मेरे चाँद पे , 
उसकी धरती ने जीत लिया
मेरा चाँद 


यहाँ ,
चिलचिलाती धूप में 
कोई झंडा नहीं दीखता 
दीखता है
सगुन का बांस
उसपे फहराता झंडा   
जिसे कभी गाडा था हमने .....
कुआं खोदने के बाद 
गाँव में ...


हम बदल रहे थे धरती का रंग 
वो जीत रहा था एक बंजर जंग 
 वो छलांगें लगा रहा था ,हम चल रहे थे 
वो बदल चुका था ......हम बदल रहे थे
वो पहेलियाँ बूझ रहा रहा था 
हम जिन्दा सवाल ........हल कर रहे थे


................................................................ पंकज 

शनिवार, 30 जून 2012


संसद के साठ साल और माँ के भी मेरी / खामोश क्यों रहें ये लब मुझे मालूम हुआ ||


·
ऊलजुलूल हरकतों का सबब मुझे मालूम हुआ |
कोई सठिया गया है अब मुझे मालूम हुआ ||

उस नाखुदा को क्या कहें जिसने डुबो दिया |
भोला भी बहोत था तब मुझे मालूम हुआ ||

गो चिलमनों में उसकी कई छेद थे मगर |
गफलत में हम ही थे तब मुझे मालूम हुआ ||

माँ अपनी थी वैसी ही और बाप भी वैसे |
तकरार उसूलों पे हुई जब मुझे मालूम हुआ ||

लिखा है हर्फे माँ भी गलत सांवली तस्वीर में 
माँ क्यों हुई है जाँबलब मुझे मालूम हुआ ||

संसद के साठ साल और माँ के भी मेरी |
आँखों का मोतिया है धुला अब मुझे मालूम हुआ ||

गज़ल


भूल भी जाऊं तो याद आने का डर रहता है 
वो इजाज़त बगैर मेरे घर में रहता है

ये चाँद भी कोई ना आशना मुसाफिर है 
रात की रात ये तन्हा सफर में रहता है

है जो खुद्दारियां सजदे के आड़े आती रही 
दर्द दिल में कभी कभी कमर में रहता है

मैं अगर बंद करूं आंख भी तो क्या हासिल 
वो तो बाकायदा मेरी नज़र में रहता है

छाले भी उसके पाँव के अब फूटते नही
तमाम उम्र किसी दोपहर में रहता है 

है यूँ खामोश कि आंखें भी कुछ नहीं कहती
कैसी तन्हाई है गहरे सिफर में रहता है

तमाम उलझनों में है घिरी ये गज़लेजिन्दगी 
अजीब शख्स है फिर भी बहर में रहता है

क्लीन चिट् ....




क्लीन चिट् 
सदी का सबसे खतरनाक शब्द 
समाचार सुनते या पढते वक्त 
किसी हडबडी में
या गडबडी में 
रह जाए 
अनपढा अनसुना..
कि 
किसे मिली
क्यों मिली ...
तब रात भर 
नींद में चिहुंक चिहुंक
उठता हूँ 
पसीने से तर बतर 
कैसे बताऊँ कि 
वे ,जिन्हें 
किसी जांच के बाद 
अमूमन 
मिल जाया करती है  क्लीन चिट्
सपनों में
कितने खौफनाक दीखते हैं ......

सोमवार, 4 जून 2012


मुझसे मेरे शहर के दिनओरात पूछिये  
करता नहीं है इस पे कोई बात पूछिये 

कैसे लगूं गले बढ़ाऊं हाथ किस तरह 
मैं जानता हूँ फिर भी मेरी जात पूछिये 

बचपन की दोस्ती वहीं तक ही रही महदूद 
साहब से बचपने की कोई बात पूछिये 

क्यों मान के चलें के वो भी मान जायेंगे 
उनसे कोई नाज़ुक से सवालात पूछिये 

कोई भरम नहीं था मुझे क्यूं गिला करें 
वो दिन गए जो थे कभी हम साथ पूछिये 

हालांके अब भी हैं अदा में तेरे शोखियाँ 
मुश्किल में हैं हमारे भी हालात पूछिये 

सड़कों पे बह रहा है लहू बोलता भी है 
बातों में उसकी बात है क्या बात पूछिये 

तमगे सजे लिबास पे मुँह पे लगा है खून 
क्यों उनको मिल रहें है इनामात पूछिए 

उसने किसी उम्मीद में परचम उठा लिया
क्यों सो रहे हैं आपके जज़्बात पूछिये  

अपने गले की नाप की जिसने बनाई फांस 
कितने अंधेरों में हैं उसकी रात पूछिये  

जब के खुदा हमारा और तुम्हारा वही तो 
भरमा रहा है कब से उसकी जात पूछिये

उसके भरोसे में रहे सदियाँ गुजर गयी 
अब और कितने ढाएगा जुल्मात पूछिए 

हिंदू औ मुसलमान सिख ईसाई कब हुए  
किसने अलग किया हमें ये बात पूछिए 

आंसू 



मैं बह जाऊँगा 
सोख लेगी धरती मुझे 
और ,मैं सोख लूँगा 
तुम्हारी पीड़ा,तुम्हारे दुःख सारे ...


तुम
मुझे संभाल लो 
मैं
तुम्हे संभाल लूँगा 


मैं हूँ........ जब तलक
तुम हो..... तब तलक
कि मुर्दे कभी ..
रोया नहीं करते


बस,
मेरे भीतर जो गर्म है 
वही मैं हूँ 
बस,
मेरे भीतर जो बची शर्म है 
वही मैं हूँ .......
इसके अलावा
मैं और क्या 
दो कतरा
खारे जल का 


रविवार, 3 जून 2012


यूँ ही कभी कभी ..






यूँ ही कभी कभी,
किताबों की पुरानी रैक
साफ़ करते करते
गिर जाए
किसी किताब के बीच रखा गुलाब
और, बिखर..जाए
हरी कर दे 
स्मृतियों की पुष्पवाटिका
यूँ ही कभी कभी


यूँ ही कभी कभी
दिख जाए कोई रस्ते में
दफ्तर की जल्दी में
और मन कहे 
कि मैंने 
शायद तुम्हे पहले भी कही देखा है
थम जाए वक्त की रफ़्तार
दफ्तर की जल्दी,सभी
यूँ ही, कभी कभी.....


यूँ ही, कभी कभी
बैठे बिठाये
बचपन याद आये
और आँखों में
पिता के, पोपले मुँह की हंसी
उभर आये
पिता, जो अब भी बेसबर,
करते इंतज़ार
सुबह का अखबार
और फिर पुराना चश्मा उतार
आँखों से लगभग सटा, अखबार
देखना चाहते, पढ़ना चाहते,
हाल दुनिया का
कि, जैसे
बाकी रह गया हो, दुनिया को
देखना,समझना ,नजदीक से, अब भी
यूँ ही, कभी कभी ......


यूँ ही ,कभी कभी....
टूटे तन्द्रा,
फोन की घंटी से
कि ,बच्चा स्कूल से
लौटा नहीं अब तक
कि, गैस खत्म हो गयी,
और खाना,
नहीं बन पाया, तब तक
तमाम सूखे गुलाब
राह में मिले, अजनबी अहसास
पोपले मुंह की निश्छल हंसी
सब एकदम से ,
बिखर जाए
इस तरह चिहुंकाये ,
झकझोर जाए , जिंदगी ..
यूँ ही कभी कभी ...

रेत मजदूर को देखते हुए ...


रेत मजदूर को देखते हुए ...



उसने लोहा उठाया  ,
झट, उसका कान उमेठा
बाल्टी के नंगे कानों में पहना,
चल दिया,
वो भी ,सज संवर
बाहों में लटक ....चल पडी
साथ उसके डुबुक ...
छिछले पानी में घुसता,
नीचे मोतियों का,घूरा चमकता,
ले आता उपर,रेत भर भर
बस एक परत
मटमैले पानी के भीतर
मोतियों का चूरा,दमकता
डूबता उतराता , तैरता,
भर बाल्टी रेत,उलीचता 
तट से दूर खड़ी,नाव में
नदी किनारे बसे,तुम्हारे गाँव में 
भरी दोपहरी , थक कर 
गर्म तवे पे चलकर
धूसर ढूह की सूनी छांव में,
छितर जाता....... 

अखबार में गठियायी, 
बासी खबरे समेटे ,
सूखी रोटी...कुडकुडायी
अक्षर शब्द सब,
काले धब्बों वाले
पीले चाँद सी, रोटी के जिस्म पे,
उलट पुलट चिपक गए .....
पीला चाँद, दुनिया का अक्स लिए 
आइने सा ,बोल रहा था.....
सारी दुनिया सारा सच
खारी दुनिया का खारा सच
खोल रहा था.....

वो कौर पे कौर तोड़ रहा था  
एक कौर और
असंगठित मजदूरों की कल्याण कारी योजनाये 
सीधा हलक के भीतर 
एक कौर, और 
जापानी बुखार का कहर  
पानी के घूँट के साथ
उतर गया
सर्कस में कोई
सफ़ेद बाघ था, मर गया
ओबामा के भोज में
चिकन तंदूरी,
हैदराबादी बिरयानी
सैफ करीना की कहानी  
एक कौर, और
........ये मेरी नहीं, 
जनता की जीत है
............ये हमारी 
सेवाओं का फल है
बाद चुनाव् ,होने वाले सद्र की 
नवधनिक दीमकों की मुस्कुराती,
हाथ मिलाती तस्वीरें,  
......चबाये जा रहा है
दाँतों का झुनझुना
बजाये जा रहा है  
गाये जा रहा है......

रोटी खत्म ....
पेट आधा भर गया
तमाम ख़बरें 
पानी के साथ ,निगल गया
चल दिया आदतन  
ढूह  की ओट में
खाने के बाद मू....ने 
रोटी रह गयी पेट में ,
पानी बह गया रेत में,
सूख गयीं, भाप हुईं ,
गर्म तवे पर
तमाम ख़बर .....

तन मन ,बाद दो पहर ,
फिर तर बतर 
छालों में स्वेद बिंदु भर,
निर्विकार,थक हार
ढलते सूरज के साथ ,ढह जाता 
एक सन्नाटे सा ,
नदी किनारे पसर जाता  
गठियायी शैम्पू की पुडिया
टेंट से निकालता 
देह भर,साबुन की
सस्ती टिकिया लगाता 
दिन भर की हजार डुबकियों
के बाद भी,जाने क्या छुडाता  ,
मल मल नहाता...
सस्ता गम्कौउआ तेल लगा
किसी आस सा ,संवर गया 
पानी में जाने कब कैसे
दिन भर का छाला धुल गया   
सूरज ढलने के साथ साथ 
तारों की बारात चली 
उसके संग फिर रात चली .......
देशी दारू के ठेके पे 
सारी दुनिया है ठेंगे पे .....

रविवार, 27 मई 2012


जमीर .....


झाँक भी लो कभी
अपने गरेबां में 
ये ,वीरानगी सी क्यूँ है, छाई 
इस मकां में

अपने जमीर को, बारहा
कुरेदते रहो ...
अपने गले को,अपने ही हाथों 
रेतते रहो .......

न जगाये रख पाओगे 
तो ऊँघ ...सो जायेगा ...
आदमी के भीतर से, आदमी 
यूँ खो जायेगा ...

सफ़दर..! तुम्हे फिर आना है ...



तुम तन्हा कहाँ , इक कारवाँ हो
हो, न हो, हमारे दरमियाँ हो

मुकाबिल हुए,मारे गए खुले आम
कातिलोमकतुल सब ,
दर्ज रखता है अवाम
जो भी हो मुकाबला,
ज़ाया नहीं होता
किताबे वक्त में
बाकायदगी से दर्ज रहता
जिन्दा कौमों पे आयद
ये क़र्ज़ रहता
तुम्हारी शहादत ,एक खौफ सी ,
तारी हुक्काम पे
जिन्दा, मिसाल सी ,
जिन्दा अवाम पे
ये जंग बंद नहीं है ,
अभी जारी है
अब जंग है , तो लाजिम है ,
हमले होते रहेंगे
बस,तौर तरीके कुछ ,
बदलते रहेगे
अव्वलन,
जंग की शक्ल बदली
अब जंग के उसूल ,
बदल रहे है
पोशीदा हमलों के
सिलसिले से चल रहे है
ये, अजब है ना !
नए दौर की ,विडम्बना...

इस नयी सदी की
नयी पौध को ,
घातों की, विविधा से,
अभ्यस्त , कराना है
यूँ , अपने गढे नारों की
रूह का ,परकाया प्रवेश
रोकना है ,बचाना है
और बच्चों को ,
उस खुशफहम जमात से
अलगाना है
जो, इस तसव्वुर में कि,
राजा का बाजा बजायेंगे
और,राजा की रजा से 
अवाम को
अपनी बात सुनायेंगे  
कुछ बोलेंगे बतियाएंगे
राजा का बाजा
बजाती तो  है
इस्तेमाल कंरने
जाती तो हैं
पर कब्ल इसके, 
इस्तेमाल हो जाती हैं......

खुशफहमी में,
जो जियेंगे, मारे जायेंगे
जैसे मर गया था ,
कभी, तुम्हारा गीत
जिसकी, रूह तर्क कर ,
हाथ पैर काट कर
किश्तों में बाँट कर,
छितरा दिया गया
जो हुआ था तब, जो होता अब
तो क्या तुम,बर्दाश्त कर पाते ?
जैसे गिरगिट,
बदलते है रंग क्या तुम ,
बदल पाते ?

तुम फिर लड़ते,
और मारे जाते ,
इस रंग बदलती दुनिया के ,
बदलते पैंतरे
नयी पौध को समझाना है
सफ़दर ! तुम जहां कहीं भी हो
तुम्हे फिर आना है ...

राम नवमी के बहाने ....



तुम क्यों कर याद दिलाते 
साल दर साल अपना जनम
कुछ तो रहने भी देते 
अपने होने का भरम

वैसे भी तो ये ,
भगवानो की ही बस्ती है,
हर घर में एक कमरा 
भगवान को अलाट है 
जाकर देखो कि,
उसका कैसा ठाट है 

वो जिनके ,
कोई घर नहीं होते हैं 
देखो ज़रा तो,  
फुटपाथों पे, वो कैसे सोते हैं 
उन्हें मंदिरों में तुम्हारे,
जो शरण मिल पाती 
तो रात उन्हें भी
कुछ नींद तो आ जाती 

पर यहाँ तो
गंगा ही,
कुछ उल्टी बह रही है 
पीड़ा के हिमालय से निकल , 
ताण्डव नर्तक की
जटा में मिल रही है
पता नहीं ,
अब किसके 
पितरों को तारना है 
इतने तो मर चुके,
अब कितनों को मारना है 

मंदिर तुम्हारे,
पहले से इतने तो ज्यादा है
तब और बनवाने के पीछे
क्या इरादा है 
किस असुरक्षा में 
निजी संपत्तियां खड़ी कर रहे हो
इतने बरसों से अपना मुकदमा 
खुद ही ,क्यों लड़ रहे हो ??

इन् अदालतों के 
दीवानी मुक़दमे में 
तुम भी फरीक हो
तमाम कत्लोगारत की फ़ौजदारिओं में 
बराबर के शरीक हो

मैं जानता हूँ ,
कि किसी ने तुम्हारी
शिनाख्त नहीं की 
मुंसिफ ने भी आगे ,क्यों
दरियाफ्त नहीं की...

बस इन्ही 
खाक ओ खून की सियाही में 
कोई अन्तर्यामी ,
कभी क्यों नहीं दिखता
नवमी मनाई जाती है
पर राम नहीं दिखता 
इंसान में भगवान तो
फिर दिख भी जाता है 
भगवान में इंसान
फिर भी नहीं दिखता .....