सोमवार, 3 सितंबर 2012


माँ ! तुम्हारी छवि
एक कुहासा है
पार इस के
कोई कहाँ जा पाता है
मैं आ रहीं हूँ
कुहासे के उस पार
जहां तुम होगी
और मैं
खुल कर बातें करेंगे
जैसे बात करती है
एक स्त्री दूसरी से
बेपर्दा .......

माँ
देखना है
तुम्हारा घूंघट
तुम्हारा वास्तव
शाश्वत छवि उलट
जानना है
किस धातु का बना है
तुम्हारा कंगन ,तुम्हारा बिछुवा
तुम्हारे सारे आभूषण
तुम्हारे स्वेद अश्रु के सान्द्र विलयन में
सब घुलता आया है अद्यतन
तुम्हारे रक्त मांस का
एक हिस्सा हूँ मैं ....
तब इतनी
अघुलन शील क्यों
अपने स्त्री रूप में ...
क्यों नहीं घुल पाती
इस खारे विलयन में
क्यों फांस सी अटक जाती हूँ
तुम्हारे मन में
त्याग और ममता का आवरण भी
अब तो अक्सर
उतर जाता है
कोई अनजाना अनचीन्हा भयानक
चेहरा नज़र आता है
तुम्हारी अँगुलियों के नाखून भी
कितने बड़े हैं
मेरे कलेजे पे भी तो
फफोले पड़े हैं
आखिर किस धातु के गहने
फिर मुझे सौंप रही हो
इस बोझ को ढोना नहीं चाहती
अब और रोना नहीं चाहती
किन युगों में
धातु कर्म की किस जटिल रासायनिक क्रिया ने
इन् धातुओं का निर्माण किया
जिसका गलनांक
तर्क और विवेक के ताप से परे है

मैं
उस शास्त्र को
उन शास्त्रियों को
प्रणाम करना चाहती हूँ
और उनकी इजादों को भी
अंतिम प्रणाम ......

मैं,
आ रही हूँ.. माँ
तुम्हारे कंगन उतार
कुहासे से पार
जा रही हूँ .......माँ

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