सोमवार, 3 सितंबर 2012


चापलूसी के सिवा साहब को कुछ भाता नहीं
मुझको सीधी बात करने के सिवा आता नहीं

दौड़ है चूहों की इसमें बोलो मैं कैसे बढूँ
चाहता हूँ मैं भी बढ़ना पर बढा जाता नहीं

अब नहीं हैं रेंगती ये साहबों के कान पे
हम भी जुओं से नहीं है रेंगना आता नहीं

दीमको के इस शहर में लकडियों की कोठियां
हादसा होने को है और कोई चिल्लाता नहीं

हाकिमों की जी हुजूरी में गुजर गयी जिंदगी
अब उन्हें इसके सिवाये और कुछ आता नहीं

हैं बड़े एहसान हम पे हम करें तो क्या करे
दूजा चढ़ जाए है मुझपे पहला भर पाता नहीं

मुँह छिपा न् पाए तो नजरें झुकाना सीख ले
बेशरम इतना है कि इतना भी कर पाता नहीं

हम तरक्की चाहते तुम भी तरक्की चाहते
जिस तरह तुमने है पायी उस तरह आता नहीं

जिंदगी शतरंज की पुरपेंच बाज़ी हो गयी
चाल चलना चाहता हूँ पर चला जाता नहीं

तुमसे मिलने की कोई सूरत नहीं आती नज़र
और तुम्हारे घर से पहले मेरा घर आता नहीं

मैं भी आखिर आदमी हूँ कुछ खता हो जाती हैं
हर खताओं की सजा हर कोई तो पाता नहीं

और मैं कैसे कहूँ के हमको तुमसे प्यार है
तुम भी हो खामोश और मुझसे कहा जाता नहीं

जिस्म में पत्थर पड़े हो और सुनवाई न हो
हथियार तब उठ जायेंगे ये कोई उठवाता नहीं

जब से माँ गुजरीं हैं मेरी तब से ले कर आज तक
कोई उतने प्यार से अब मुझको सहलाता नहीं

उस जवां लड़की ने जब से सर उठाना सीखा है
कुछ और ही सूरत है उनकी वो पिता माता नहीं

मैं गज़ल कह लूं तो आकर तुम कसीदे काढना
माफ करना अब भी मुझको ये हुनर आता नहीं

एक दो बीमारियाँ मुझको विरासत में मिली
रीढ़ की हड्डी पे अब भी चोट सह पाता नहीं

बख्शो मुझे इज्ज़त तो मेरा सर वहीं झुक जायगा
बेवजह सजदे में ये अब ज्यादा रह पाता नहीं

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