मंगलवार, 17 जुलाई 2012


उन तमाम बुजुर्गों को समर्पित जो नितांत अकेलेपन में जी रहे हैं ,मर रहे है या मार दिये जा रहे हैं ....

·
उनके दुपट्टे की गिरह उनके गले में लगाए क्यों
जब बदनसीबी नसीब हो तो अपने क्यों औ पराये क्यों

मैं ये जानती थी जिंदगी और मौत सब मेहमान है
मेरे आस्ताँ में आये तो वो इस तरह से आये क्यों

हम कारकुन हैं जमीन के यही पर गुजारी जिंदगी
कोई अजनबी सी है कज़ा वो आसमान से आये क्यों

एक हादसा सा गुजर गया मेरी जिंदगी के मकान में
जो बन पड़ा वो सब किया तब इस तरह कोई जाए क्यों

मुझसे कज़ा की शान में गुस्ताखिआं कुछ हो गयीं
पर वो रकाबत इस तरह मेरी जिंदगी से निभाए क्यों

मैं बदनसीब बुजुर्ग थी, तेरे निजाम के आसरे
मेरा हश्र देख जवाब दे ,न लगाए इसमें आग क्यों

बेचारगी ऐसी ही थी जिस तिस को देखा बुला लिया
क्यों न बुलाती ऐ कज़ा मेरी गली तू आये क्यों

बुधवार, 11 जुलाई 2012


प्राण पिक कुछ बोल रे................. (1984 यानी १२वीं पास किया ही था तब मैंने ....... .....)
by Pankaj Mishra on Wednesday, April 18, 2012 at 11:35pm ·
....................................................................................................................................................................
                        क्यों मौन है मुख खोल रे 
                        प्राण पिक कुछ बोल रे.....
अध् खुली पलकें तुम्हारी 
अध् खिलीं अलकें तुम्हारी 
कह रही कुछ गुनगुन गुन
प्राण पिक तू ध्यान से सुन 
क्या मिला सन्देस रे.......... 
                         क्यों मौन है मुख खोल रे 
                         प्राण पिक कुछ बोल रे....
तू रूपनगर की सीमान्त
मैं बटोही व्यथित क्लांत
घन श्याम है विश्राम कर लूं
उर व्यथित आराम कर लूं
जड़ अधर कुछ डोल रे........
                            क्यों मौन है मुख खोल रे 
                            प्राण पिक कुछ बोल रे..... 
मैं मन मयूर बन आया हूँ 
तेरे इस जीवन कानन में 
मैं कब का प्यासा बैठा हूँ 
दो बूँद की खातिर सावन में
तू अपनी अलकें खोल रे.....  
                           क्यों मौन है मुख खोल रे 
                           प्राण पिक कुछ बोल रे......
तुम मृगतृष्णा सी आयी हो
मै मृग सा कुछ भरमाया हूँ
तुम कस्तूरी सी छाई हो
मैं गंधी बन पछताया हूँ
उर जीत लिया बिन मोल रे....
                            क्यों मौन है मुख खोल रे 
                            प्राण पिक कुछ बोल रे..... 
तुम मेरी प्रियतर कविता हो 
नव आयामों की अन्विता हो
मैं खुद से लड़ लड़ हार गया
तुम चिरविजयिनी,अपराजिता हो
ध्वनि भावों में घोल रे........
                            क्यों मौन है मुख खोल रे 
                            प्राण पिक कुछ बोल रे...... 


तुम न बोलोगे ...
by Pankaj Mishra on Sunday, February 5, 2012 at 10:29pm ·
.........................................................................................................


तुम न बोलोगे ,
तुम न बोलोगे
तो क्या,
कुछ भी समझ न आएगा 
तुम न खोलोगे ,
तो क्या,
सब राज ही रह जाएगा

बोलती हैं आँखे, 
और 
बोलती है देह भी

बोलते हैं शब्द 
और  
बोलता है मौन भी

मैं भी चुप
और
तुम भी मौन
इस गहन नीरव को
फिर ये
तोड़ता है कौन

कितने दुःख 
संग संग है बांटे 
कितने बंधन साथ काटे
फिर यकायक
साथ ऐसे
छोड़ता है कौन

अपने हाथों की लकीरें 
गौर से देखो कभी 
जिंदगी को 
इस भंवर में
मोड़ता है कौन

है अगरचे, रात काली 
भोर से पहले,
मगर 
शाम का सूरज,
सुबह से 
जोड़ता है कौन...  

मैं ....एंटीलिया
by Pankaj Mishra on Friday, February 3, 2012 at 12:17pm
................................................................................................................. ·




समय की अदालत में 
सदी का मुकदमा
आखिरी पेशी  
      मुकदमा
यूनियन ऑफ इंडिया 
       बनाम
     एंटीलिया

सिर्फ
टिक टिक .... क्लिक क्लिक
क्लिक क्लिक......टिक टिक
एंटीलिया..........!
हाज़िर हो....!
हाज़िर हूँ......!  मी  लार्ड ..

एंटीलिया.. !
अब जबकि,
तुम पर आयद सारे आरोप 
साबित हो चुके हैं
सजा सुनाये जाने से पहले 
तुम्हे कुछ कहना है 
जी , जी हुज़ूर ,
तो ,हलफ उठाओ !....एंटीलिया.!
मैं... एंटीलिया...
इतिहास को साक्षी मान 
अपने पूरे होशो हवास में ,
जो कहूँगी , सच कहूँगी
सच के सिवा कुछ नहीं कहूँगी 
मैं..एंटीलिया ,
हाल मुकाम.......इन्डिया
बयान करती हूँ ,
यह कि ,

मैं पूँजी के वैभव की
ऐश्वर्य की प्रतीक हूँ
उसके गुनाहेअज़ीम में
बाकायदा शरीक हूँ

मैं सदी के सबसे
दौलतमंद की ख्वाहिश हूँ
मैं किसी बेगैरत के
घमंड की नुमाईश हूँ
मैं दौलत की मशक्कत से
आजमायी हुई साज़िश हूँ 
मै किसी दौलतमंद की
अजीम्मुशान रिहाईश हूँ

मैं,दौलत की बुलंदी का
जिन्दा मुकाम  हूँ
तमाम लूट ओ खसोट का
हलफिया बयान हूँ

मैं आवारा दौलत का
लहराता हुआ परचम हूँ  
मैं हवस की किताब में 
सोने का कलम हूँ

मैं मुल्क के सीने में दफ्न
खंज़र की मूठ हूँ
मै इस जुल्मी निजाम का
सबसे, सफ़ेद झूठ हूँ

मैं तमाम शहरियों की
हसरत हूँ , टकटकी हूँ
कितने ही मेहनतकशों की
कुर्बान जिंदगी हूँ

मैं दिलफरेब बहुत हूँ 
लुभाती भी बहुत हूँ  
सपनो में आ आ के
सताती भी बहुत हूँ

मैं जागता सपना हूँ, 
उनसे , भागता सपना हूँ 
प्रबंधन के विशेषज्ञों की
कोरी प्रवंचना हूँ

मैं ही,आज ताकत हूँ 
सत्ता हूँ ,प्रतिष्ठा हूँ ,
इस जुल्मी हुकूमत की
नायाब सफलता हूँ

मैं कोरी औ खोखली
भावुकता , नहीं जानती 
सम्वेदना हो ,शील हो ,
किसी को नहीं पहचानती

मूल्यों के मकडजाल से
कब की उबर चुकी हूँ
ऐसे तमाम रास्तों से
निःसंकोच गुजर चुकी हूँ

मैं, कंधे पर पाँव रख
बढ़ जाना जानती हूँ  
हुक्काम की दराज में
दुबकना भी जानती हूँ 

झगड़ना भी जानती हूँ
अकडना भी जानती हूँ
आये कोई मौका, तो
पकडना भी जानती हूँ 

समझौता भी जानती हूँ ,
कुचलना भी जानती हूँ 
मचलना भी जानती हूँ ,
तो,छलना भी जानतीहूँ

मैं,आघात जानती हूँ
प्रतिघात जानती हूँ
मासूम मुफ़लिसी से
विश्वासघात जानती हूँ

शातिर ओ मक्कार हूँ
मैं कौम की गद्दार हूँ,
मतलब की यार हूँ, 
मैं ,कुशल फनकार हूँ

मंच से कभी, तो
नेपथ्य से कभी 
विभ्रम से कभी, तो 
असत्य से कभी 
लुब्ध कर सकती हूँ ,
मुग्ध कर सकती हू

भूकम्प से बच सकती हूँ
तूफां से निकल सकती हूँ  
बमों की बौछार हो 
गोलियों की मार हो   
सब को झेल सकती हूँ 
पीछे ,ढकेल सकती हूँ

रेशमी अहसास हो
भोले भले जज़्बात हो 
ऐसे खिलौनों को तो 
यूँ चुटकी में,तोड़ सकती हूँ

मै निष्ठुर हूँ, निर्लज्ज हूँ 
निरंकुश  हूँ ,नृशंस हूँ

मैं जज्बाती नहीं 
किसी की साथी नहीं
मैं..... एंटीलिया
सिर्फ खुद से प्यार करती हूँ
सिर्फ खुद से प्यार करती हूँ

बयान पूरा हुआ ...मी लार्ड !
समय की अदालत में
इतिहास को साक्षी मान ,
दुरुस्त होशोहवास में 
बगैर जोरोजबर 
दस्तखत बना रही हूँ

ताकि सनद रहे ........
                               एंटी...लिया
                            हाल मुकाम इन्.......या        

मंगलवार, 10 जुलाई 2012


विजयदशमी का प्रतिपक्ष
..............................................................
.................................
कौन मरा था त्रेता में ,
जो मैं, जश्न मनाऊ
कौन हो तुम ? जिस के स्वागत में ,
घी के दिए जलाऊ !!

चारण कवियों का सम्मोहन
धीरे धीरे छूट रहा
मिथकों का इतिहास से नाता
खंड खंड हो टूट रहा

इश्वर हो नश्वर हो,
मिथक हो इतिहास हो
राजा हो प्रजा हो,
आस्था हो विश्वास हो
वर्तमान के विवेक अनल में
युग सत्य को जलना होगा
नश्वर हो , नारायण हो,
तर्क बुद्धि की उबड़खाबड़
राह पे चलना होगा

इतिहास जेता के रथ की
पिटी लीक नहीं
तो और क्या है
रामायण और मानस सारे
अन्नदाताओं की भीख नहीं
तो और क्या है

वो असुर अधम था,
त्रैलोक्यजित था,
वो जो भी था
वो था नश्वर ही
तुम अवतारी ,पूज्यनीय हो ,
हो आखिर तो, इश्वर ही
वो कौन रावण था
जिसकी शक्ति अद्यतन उपस्थित है
तुम काहे के राम
तुम्हारी मर्यादा,अतुलनीय शक्ति
क्यों काल बाधित है

हो सकता है ,रण में,
जिसको मारा हो
कोई और रावण ,बेचारा हो
किसी मंदोदरी का पति,
किसी मेघनाद का पिता हो
या, हो किसी 'विभीषण' का भाई
जिसने कोई कुत्सित
राजनीतिक साज़िश हो रचायी 
और हुआ हो तुम्हारा
उससे पूर्ण सचेतन समझौता
इश्वर की पदवी मिली तुम्हे , संग में सीता
एक विरूप विभीषण ने बदले में पायी सत्ता
कलिकाल हो या हो त्रेता
सार्वकालिक ,सत्ता का सौदा
सार्वकालिक है शांति सेना ,
सार्वकालिक विभीषण
सार्वकालिक है छद्म शांति
और, सार्वकालिक है रण
कि विभीषण अब भी मरा नहीं
उससे खाली ये धरा नहीं, 

तो फिर ,
वो कौन मारा गया था ?
जिसका न कोई पहचान पत्र
बरामद हुआ, मौका ए वारदात से
और न ही दर्ज है कोई बयान
या फिर, अंगुलिओं के निशान
अत्याचारी, अपहर्ता का अमृत
किसके तीर ने सोखा
कहाँ है, उसका लेखाजोखा
किस प्रचार वाहन से ,उदघोषित हुआ
किस प्रचार तंत्र से ,किस प्रचार मंत्र से
युग युगांतर तक फैला
क्या तुम्हे याद है वो मंत्र ??
या तुम्हारी ही इजाद है ,
आधुनिक प्रंचार तंत्र
काल के किस पथ पर,
इतिहास के विजयरथ पर
हो सवार.......
किसी जेता कि हुंकार..
सुदूर ,सागर के उस पार
एक अत्याचारी ,अपहर्ता...मारा गया......
आदेश हुआ.....जश्न मनाओ !
मनायाया......
जेता घर आ रहा है...दीप जलाओ !
जलायायाया....
जलाते आ रहे हैं...
लेकिन, कब तक ?

हम,
इस इक्कीसवी सदी में
एक फर्जी एनकाउंटर के गवाह
कैसे हो सकते हैं ?
किसी भेदिये की
खुफिया सूचना पर हुए
संहार के इर्दगिर्द
एक सम्मोहक इंद्रजाल ,
कैसे बुन सकते हैं ? 
हम, कैसे कर सकते है, करताल
रामलीला मैदान मे एकत्र हो
साल दर साल ,लगातार
फर्जी एनकाउंटरो की त्रेता युगीन परंपरा
आज भी जारी है
विभीषण तब भी भारी था
विभीषण आज भी भारी है

अब जबकि,
रावण के अस्तित्व का प्रमाण
रोज ब रोज,मिल रहा है
हे राम ,क्षमा करना !
तुम्हारी तो पैदाइश का मुकाम भी
इतिहासविदों और न्यायाधीशों को
इतने वर्षों से ,
जाने क्यों ,नहीं मिल रहा है
तुम्हारा वजूद
एक मुकदमा है,
जो चल रहा है ...छल रहा है ......
एक रावण है जो बेचारा
आज भी तिल तिल  
जल रहा है....................................................पंकज 
.


कुछ बीज है शब्दों के
रोप रहा हूँ
कविता के हल की मूठ थामे
साहित्य का खेत
जोत रहा हूँ
जीवनी शक्ति होगी
तो अंखुआ ही जायेंगे शब्द बीज
कुछ भूख मिटायेंगे
कुछ अगली फसल के लिए
बचा कर रख लिए जायेगे
इतना ही चाहिए
इनाम में ........
हल की मूठ थामे
सोच रहा हूँ
घाम में .............

हे हिग्स बोसान 
.....................
........................................................................


सुनो, सुनो, गाँव वालों ,सुनो !


ब्रम्हांड कैसे बना
कैसे आया चीजों में
द्रव्य मान 
राज़ खुल गया है 
सृष्टि का स्वामी महान 
पाताल में फिर
अवतरित हुआ है 
अज्ञान की क्षय हो
हिग्स बोसान की ! 
जय हो , जय हो !


हे हिग्स् बोसोन !
ये क्या हुआ 
एक ही तो था अनश्वर 
क्योंकर मार दिया ......
दुःखकातर हो गरीब 
अब किसको गोहरायेगा
डायरिया से मर रहा
दिमागी बुखार में तड़प रहा 
बच्चा अब तुम्हारा नाम 
जपने से बच जाएगा....


ये बोसान कोई
बड़ा साधू है ,बाबा है ,
क्या है ??
या उल्टी बुखार दस्त की
कोई नयी दवा है 
इसका डोज़ कैसे लूं 
चूरन जैसे चाटूं
या गुनगुने पानी के साथ पी लूं 
बाबा की तस्वीर
काले धागे में बाँध लटका लूं 
या स्नान के बाद 
एक सौ आठ बार ध्यान करूं
क्या करूं ..........


हे बोसान ! 
पाताल से कब उपराओगे 
धरती पर कहाँ डेरा जमाओगे
बस एक बार
दर्शन दे कर तार दो 
इस दारुण कष्ट से 
अब तो उबार दो 
तुम्हारा पहला सत्संग 
कहाँ होगा बता देना 
इतना बस प्रवचन में
हम सबको समझा देना 
ये जनम जनम की गरीबी
किसका छल है
हमारे पूर्व जन्म के
किन कर्मों का फल है 
या इसके पीछे भी 
कोई गाडपार्टिकल है ................
........................................पंकज ...

मंगलवार, 3 जुलाई 2012

माँ ....


माँ ! तुम्हारी छवि
एक कुहासा है
पार इस के
कोई ,कहाँ जा पाता है
मैं, आ रहीं हूँ
कुहासे के उस पार
जहां
तुम होगी और मैं
खुल कर बातें करेंगे
जैसे बात करती है
एक स्त्री दूसरी से
बेपर्दा .......

माँ !
मेरे लिए तुम रही
एक छवि शाश्वत
ज़रा देखूं
आज इसे उलट
तुम्हारा घूंघट
तुम्हारा वास्तव
किस धातु का बना है  
तुम्हारा बिछुवा , कंगन
सारा का सारा आभूषण
कैसा है ??
युगों से ठहरी झील का  
स्वेद अश्रु  मिश्रित सान्द्र अम्लीय विलयन
इस अम्लराज  में
सब घुलता आया है ,अद्यतन
घुलती रहीं
बड़ी होती बेटियाँ
स्त्री में संस्कारित होने से पूर्व
एक अदद प्रसंस्कृत माँ
होती रहीं बेटियाँ

माँ
तुम्हारे रक्त मांस का
एक हिस्सा हूँ मैं ....
अपने स्त्री रूप में इतनी
अघुलन शील क्यों
क्यों नहीं घुल पाती
इस अम्लीय विलयन में
निथर निथर आती हूँ
फांस सी अटक जाती हूँ
तुम्हारे मन में
त्याग और ममता का शाश्वत आवरण भी
अब अक्सर ,उतर जाता है
कोई अनजाना अनचीन्हा भयानक
चेहरा नज़र आता है
जिसकी अँगुलियों के नाखून
कितने बड़े हैं
और मेरे कलेजे पर भी
फफोले पड़े हैं
आखिर किस धातु के गहने
फिर मुझे सौंप रही हो
मुझे नहीं चाहिए
अब ये बोझ किसी स्त्री को
ढोना नहीं चाहिए
मुझे तो बस
उस धातु शिल्पी का
पता बता दो
उस रसायनज्ञ की
प्रयोगशाला का अँधेरा
कोना दिखा दो
यह जिज्ञासु मन
जानना चाहता है
धातु कर्म की किस जटिल रासायनिक क्रिया ने
इन् धातुओं का निर्माण किया   
जिनका गलनांक
तर्क और विवेक के ताप से परे है
इनमे कौन से हीरे मोती जड़े हैं
भट्ठीयों के तापमान नियंत्रण का
सलीका क्या है
हे महान धातु कर्मियों
तुम्हें अंतिम प्रणाम करने का
तरीका क्या है ......

मैं,
जा रहीं हूँ ....माँ
तुम्हारे कंगन उतार
कुहासे से पार
उस लोक  में
जहां स्त्रीत्व है , मातृत्व है , ममता है
पर माँ नहीं है .........
हाँ नहीं है ......


रविवार, 1 जुलाई 2012


जरा................झर......ज़रा ज़रा


हर रोज , मुंह अँधेरे , बड़े करीने से
स्वाभाविक सहजता से सहेज ,
सरका दिया जाता हूँ
किसी अँधेरे , अपश्य आंतर में
अलस्सुबह ,
क्यों किया जाता है , ऐसा
किस से अलक्षित किया जाता हूँ ,
क्या है.. जो दिवस से ,
बोल दूंगा
क्या छिपाना है जिसे ,
फिर खोल दूंगा,
कल तक ,
सबसे अभिन्न अविभाज्य
अब क्यों हुआ
विच्छिन्न त्याज्य
छत पे जाती सीढ़ियों के नीचे,
जो टूटी खाट है
वो ही तुम्हारा और हमारा घाट है

तुम हो .........इस घर का कूड़ा
मै अभागा ......... घर का बूढा

एक ही है तुम्हारी और मेरी व्यथा
एक सा जीवन,एक जैसी ही कथा

भीतर अपने ये क्या क्या समेटे हो
टूटे बल्बों के टुकड़े
मेरी चाँदनी चादर के चीथड़े ,
सब के सब लपेटे हो
टूटे टुकड़े चूडियों के,
कुछ धूसर धागे , अभागे ,
धूल मिट्टी में पगे,
न जाने और क्या क्या
लपेटे.....कब से लेटे हो
इसमें हमारी ही बुझी हुयी दो आँख है
टूटने , बुझने , से पहले हुआ करती थी,
इन्ही बल्बों में ,
पीली पकी सी रौशनी ,
इस बूढ़े रोशन दान की
जर्जर झिर्रियों से
कभी आती थी
सूने घर में रौशनी
झिलमिलाते वक़्त की ,
झिलमिलाती झिर्रियों से,
झर झर , झर गयी , जर्जर रौशनी,
मेरा दूधिया समय,
पियरा गया
आँखों से एक दिन जो टपका लहू
पथरा गया ............

और ये ,
मटमैला मोटा चीथड़ा सा ,
क्या लपेटे हो
मेरी चांदनी चादर पुरानी ,
क्यों समेटे हो
ओढता था सारा कुनबा जिसे,
उन , सर्दियों की शामो में
बस इसी का तब,
एक आसरा था
प्राईमरी के मास्टर के पास , कहाँ
सबके लिए ,
कम्बल धरा था
बाद फिर वो ,
घर का पोछारा रह गया
धूल मिट्टी , दाग धब्बे
साफ़ करता , पोछता
सर्दियाँ ओढ़ी थी सबकी ,
धूल माटी ओढता
बूढ़ा हो गया...,..घर का कूड़ा हो गया

कुछ काली सफ़ेद उलझन सरीखी हैं दिखी
समय के धूसर धागों में धंसी ,
कुछ लटें उलझी , अनसुलझी
कुछ वैसी ही जो ,
एक अभागी बुढ़िया ,
रोज रात सुलझाती थी,
हरदम , सोने से पहले
बस उस एक रात
वो क्या सोयी ,
मेरे सोने जाने से पहले
हमेशा के लिए सुलझ गयी,
मेरे , दो बूँद रोने से पहले

उन दो बूंदों का कर्ज ,
बहुत सालता है
बूँद बूँद सा , अंतर से ,
उतर आता है

और जो ,
लाल हरी चूडियों के चमकीले टुकड़े पड़े है
वो तभी से मेरे सीने में गड़े है
हाँ सधवा ही मरी थी,
और तब ,
वो लाल थी, हरी थी
याद करती आज तक उसको ,
जो मेरी डायरी थी
उसको भी
मैं तुममे देख रहा हूँ

कल रात ,
पुरानी डायरी के पन्ने ,
पढते पढते , भीज गए थे
गीली , सीली स्मृतियों से
सीझ गए थे
अक्षर कुछ काले , कुछ नीले
काले कठुआये , काठ हुए
नीले , अब भी सपनीले थे
दो बूँद पड़ी तो पसर गए
रात, मेरे बिस्तर में , गिरकर लसर गए
बरसो बाद , हम दोनो सोये साथ साथ
बरसों बाद देर से जागा हूँ ......

मुंह अँधेरे जब सो रहा था ,
किसने करीने से ,
इसे सरका दिया
इस अँधेरे अपश्य आंतर में
मेरे रहते , ये जघन्य
मेरे ही घर में
तुम, अपने पास इसे ,
कैसे रख सकते हो
समय कर न सका जो ,
तुम कैसे कर सकते हो
यही तो एक तीसरा बल्ब है
जो भीतर अब तक
जल रहा था
इसी एक सपने के साथ तो
जीवन पल रहा था
ये कैसे कूड़ा हो गया ?

क्या सब कुछ
कूड़ा हो सकता है
सपना भी क्या
बूढ़ा हो सकता है ?

अब भी इस सूने घर में
उम्मीदों के छौने , खेल रहे हैं
वो छुम्मक छुम्मक आएंगे
कुछ तुम संग वो खेलेंगे ,
कुछ मुझसे भी बतियाएंगे
देखो , कैसे वो करकट से
कुछ खोज बीन
तेरे सरमाये से छीन छीन
जीवन के , मरघट तक लायेंगे
टूटे बल्बों के टुकड़ों से ,
गुडिया की आँख बनाएंगे
उसके दोनों सूने हाथों को
फिर चूडियाँ पहनायेंगे
चांदनी चादर की दुशाला से
बिखरे हुए मनकों की माला से
फिर से उसे सजायेंगे
मेरे कंपकपाते हाथों के झूले में दे,
मुझ से ही फिर , झुलवायेंगे
इस बूढ़े कूड़े की
नीली कुम्हलाई , लोरी
संग संग गाते , तुतलाते
गुडिया को,
फिर मुझ से ही सुलवायेंगे

तुम देखना,
उस गुडिया को
मैं अब यूँ न सोने दूंगा
अपने सोने से पहले
अब कोई
कर्ज न रहने दूंगा ....
फिर हम दोनों दुखिआरे ,
इन्ही उम्मीदों के सहारे
संग स्वप्नलोक में जायेंगे
पार... तिमिर के.......
जीवन-शिविर के ..... ..
पास अनुभव तप्त मिहिर के
आज वो बुला रहा है
उम्मीद का छौना
फिर नींद में मुस्का रहा है
आज कोई आ रहा है ....

माँ



माँ ! तुम्हारी छवि
एक कुहासा है 
पार इस के
कोई कहाँ जा पाता है
मैं आ रहीं हूँ
कुहासे के उस पार
जहां तुम होगी
और मैं
खुल कर बातें करेंगे 
जैसे बात करती है 
एक स्त्री दूसरी से
बेपर्दा .......

माँ
नजदीक से छूना है
तुम्हारा घूंघट 
देखना है तुम्हारा वास्तव 
शाश्वत छवि उलट 
जानना है 
किस धातु का बना है 
तुम्हारा कंगन ,तुम्हारा बिछुवा
तुम्हारे सारे आभूषण 
तुम्हारे स्वेद अश्रु के सान्द्र विलयन में 
सब घुलता आया है अद्यतन 
तुम्हारे रक्त मांस का
एक हिस्सा हूँ मैं ....
तब इतनी
अघुलन शील क्यों
अपने स्त्री रूप में ...
क्यों नहीं घुल पाती
इस खारे विलयन में
क्यों फांस सी अटक जाती हूँ 
तुम्हारे मन में 
त्याग और ममता का आवरण भी 
अब तो अक्सर
उतर जाता है 
कोई अनजाना अनचीन्हा भयानक 
चेहरा नज़र आता है 
तुम्हारी अँगुलियों के नाखून भी
कितने बड़े हैं
मेरे कलेजे पे भी तो 
फफोले पड़े हैं
आखिर किस धातु के गहने 
फिर मुझे सौंप रही हो
इस बोझ को ढोना नहीं चाहती 
अब और रोना नहीं चाहती  
किन युगों में
धातु कर्म की किस जटिल रासायनिक क्रिया ने
इन् धातुओं का निर्माण किया  
जिसका गलनांक
तर्क और विवेक के ताप से परे है 

मैं 
उस शास्त्र को
उन शास्त्रियों को 
प्रणाम करना चाहती हूँ 
और उनकी इजादों को भी 
अंतिम प्रणाम ......

मैं,
आ रही हूँ.. माँ
तुम्हारे कंगन उतार 
कुहासे से पार
जा रही हूँ .......माँ 


ज़िंदा सवाल ......


..........................................................................
गुरुत्वाकर्षण कम था 
या धरती से मोह भंग 
पता नहीं 
मेरा ही कोई दोस्त था .....नील आर्म स्ट्राँग
लंबे लंबे डग भरता  
निकल गया 
मैं तकता रह गया 
उम्मीद के उस टुकड़े को 
जो कभी चाँद सा चमकता था 
गहरी उदास रातों में 
निकलता नैराश्य के अँधेरे गर्त से 
उजास की तरह
और फ़ैल जाता 
चला गया एक दिन 


हाँ , खबर तो यही थी 
तस्वीर भी छपी थी 
उस रोज 
कि मेरे उसी दोस्त ने 
झंडा गाड़ दिया
मेरे चाँद पे , 
उसकी धरती ने जीत लिया
मेरा चाँद 


यहाँ ,
चिलचिलाती धूप में 
कोई झंडा नहीं दीखता 
दीखता है
सगुन का बांस
उसपे फहराता झंडा   
जिसे कभी गाडा था हमने .....
कुआं खोदने के बाद 
गाँव में ...


हम बदल रहे थे धरती का रंग 
वो जीत रहा था एक बंजर जंग 
 वो छलांगें लगा रहा था ,हम चल रहे थे 
वो बदल चुका था ......हम बदल रहे थे
वो पहेलियाँ बूझ रहा रहा था 
हम जिन्दा सवाल ........हल कर रहे थे


................................................................ पंकज