सोमवार, 3 सितंबर 2012


जन्मदिन तुम्हारा
क्या दूं
तुम्हारे जन्मदिन पर
जो हो हर जन्मदिन से बेहतर
जो तुम्हे ऐसे खुश कर सके
जैसे कि दुखों के अगाध सागर के पार
तट पर पहला कदम रखते होता है किसी को
कि तुम मुझे कुछ ऐसे टूट कर प्यार करो
कि मैं , हाँ सिर्फ मैं ही हूँ
जो तुम्हे वो सब दे सकता है
जिसका ख्वाब ही देख पायी हो तुम अब तक
क्या दूं ऐसा
जो भुलाये न भूले
क्या बोलो क्या ?
है कुछ ऐसा
ऐसा कुछ हो भी सकता है क्या ?

हाँ ,ऐसा कुछ है
ऐसा कुछ हो सकता है
कि ,मै ऐसा कुछ ढूँढ रहा हूँ
तुम्हारे लिए अनवरत
ये अहसास ही है बहुत ...


तो कुछ,
कहती क्यों नहीं ,अर्चना
या
करती ही रहोगी अर्चना
हो सकता है
कुछ करती भी हो या
कुछ कहती भी हो ,मंत्र सा
पर युगों से बहरे कानो को
ऊँचा सुनायी देता है ,अर्चना
ऐसे में , चीखो ...
गला फाड ,चीखो
चीख ऐसी
जो कान के परदे फाड़ दे
पैने करो नाखून
जो '''मर्यादा''' के वल्कल उघाड़ दे
गीली धुआंती लकडियाँ
कब तक सुलगाओगी
बुझा चाहती हैं जो ,
उन्हें मशाल कब बनाओगी
ऐसी भी मुट्ठी को,
क्यूँकर बंद रखना
सूरज धरती आकाश को
कब भाया, कैद रहना
त्याग अर्चन आराधन का क्लांत मंत्र
तान प्रत्यंचा , बाणों को कर स्वतंत्र
आकाश पे रक्तवर्णी हस्ताक्षर अमर्त्य कर दो
भवितव्य में अनत मुक्ति की संभावना भर दो...

बच्चे .............




बच्चे उगे
जैसे उगते है, पौधे जंगल में

बच्चे बढे
जैसे बढते हैं, देवदार जंगल में

बच्चे हँसे
जैसे हँसते है, फूल जंगल में

बच्चे सहें
जैसे सहती है दूब जंगल में

बच्चे जलें
जैसे जलते हैं पलाश, जंगल में

बच्चे खिले
जैसे खिलती है हरियाली, जंगल में

बच्चे खुले
जैसे खुलता हैं आकाश जंगल में

बच्चे झरे
जैसे झरती है धूप, जंगल में

बच्चे उलझे
जैसे उलझती हैं झाड, जंगल में

बच्चे खोजे
जैसे खोजे है कोई राह, जंगल में

बच्चे घिरे
जैसे घिरते हैं मेमने, जंगल में

बच्चे लड़े
जैसे लड़ती हैं जिजीविषा, जंगल मे


आँखों को,जो जो दिखता है
वो सारा क्या,सच होता है ?

सब कुछ,क्या होता बाहर ही
या कुछ होता है, भीतर भी

सृजना अंखुआती ,भीतर ही
कलियाँ मुस्काती ,भीतर ही

घाव कोई लगता,भीतर ही
दर्द उभरता है,भीतर ही

आँख भरा करती भीतर ही
सोच पका करती,भीतर ही

गीत कोई रचता,भीतर ही
राग कोई रुचता,भीतर ही

खवाब कोई पलता,भीतर ही
खवाब कोई मरता,भीतर ही

प्रेम उमगता है ,भीतर ही
मौन कोई पढता, भीतर ही

मरने से पहले, हर इंसा
पहले मरता है भीतर ही

सब कुछ होता है,भीतर ही


ठन ठना ठन, ठन ठन ठन ..
by Pankaj Mishra on Friday, April 20, 2012 at 11:43pm ·
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कभी कभी क्यों हो जाता है,
बच्चे जैसा मन
बिना विचारे कुछ करने का,
क्यूं करता है मन

सोच समझ कर देख लिया ,
गुणा भाग कर देख लिया
जीवन के इस अंकगणित से ,
होती है उलझन

झूठ को नंगा करने का,
सच को सच कह सकने का
साहस पैदा कर पाता ,
बन जाता दर्पण

खुश होने पर गा न पाऊं ,
चोट लगे चिल्ला न पाऊँ
खुद से आँख मिला न पाऊं
उफ़, ये दुह्सह्य दोहरापन्

किस्से क्या,व्यवहार करू,
किसका कब, दरबार करू
हरदम यही, विचार करू ,
भाड़ में जाये, अनुशासन

खीस निपोरे, हे हे करना,
जूती भी सर, माथे धरना
सहम सहम,कब तक जीना ,
छोड़ छाड दूं ,ये जीवन

केवल सुख सुविधा है जोड़ी,
इसकी उसकी ,बांह मरोड़ी
जो भी आया, जैसे आया,
पाई पाई, आना कौड़ी

घर बाहर सब,भरा हुआ है ,
वो इतराया,खडा हुआ है
भीतर का बच्चा, चिल्लाये.......
ठन ठना ठन, ठन ठन ठन ...


ये कैसी अदालत है, ये कैसा कटघरा है
ताले है जुबाँ पे,अभिव्यक्ति का खतरा है

इस नामुराद अवाम की,हिम्मत तो देखिये
साँसे अभी गरम है, दिल भी धड़क रहा है

वो लटक रही गरीबी,ख़ुदकुशी की शाख पे
भागी है घर से बेटी,हाकिम का तब्सरा है

जिदगी की जिंदगी पे, मेहरबानी तो देखिये
मरता वो शबोरोज है, पर जीता ज़रा ज़रा है

अब तो जम्हूरियत की,निगाहों का भरम टूटे
ए चाँद उफक पे आ जरा, सागर अभी ठहरा है

तारीख की सरजमीन,खाकओखू से तरबतर है
अब गौर से देखो उसे, वो नक्श जो गहरा है

यूँ आदमी की जंग,जारी है आदमी से
लथपथ पड़ा तो है, पर आदम कभी मरा है ?


कितने ठौर, दिखाए दुनिया
कितने तौर, सिखाए दुनिया  

मेरे जैसे,  जाने कितने
मुझको, और दिखाए दुनिया

एक नार  सरकार चलावे
एक पीसे लहसुन धनिया

सूखे खेती, मरे किसान्
सूदखोर सरकार कि बनिया

धरती छीनी,जंगल छीना
परगति से भरमाए दुनिया

बस दुःख थोडा छलक गया
भर आयीं जो फिर अखियाँ

किसको पीर सुनाऊ अपनी
लग रोऊँ किसकी छतिया

हड्डी चूसे सेठ महाजन
दूध मलाई चापे कुतिया

दुखियारी की भूख तो देखो
चाँद काट , खाये  रतिया

नेताओं के आश्वासन सी
साजन की झूठी बतिया

परजा तंत्र कि ठंडई में
कैसी भंग मिलाये दुनिया

सपने ,तितली भये,सखी
कब इस फूल ,कब उस पतिया

ठगिनी की करताल पे देखो
मनमोहन नाचे ता ता थैय्या

सूखे खेती, मरे किसान्
सूदखोर सरकार कि बनिया

बस चुनाव कि बात है साथी
मांगे , भीख चतुर बनिया

कैसे अपनी इज्जत ढांपे
फाटी सुखिया कि अंगिया

इन् आँखों कि बात न् पूछो
बारह मॉस लगे हथिया

लाल बगूला लील गयी
डाइन सी काली रतिया

दुःख का घन ऐसे बरसा
बह गयीं रही सही खुशियाँ


जुलुम जोर अब बंद करो
लाल हुई जाती अंखिया

लाल बगूला निकल रहा
फोड समुन्दर की छतिया

रोके टोके अब ना रुकेगी
अंधड भयी हवा,सखिया

मुट्ठी बाधे निकल पड़ी हैं
कितनी झांसी की रनियां

इसकी उसकी जात न् पूछो
सब डारे है , गलबहियां


दहशत ऐसी यूँ है तारी वो अजनबी लगने लगे
अपनी खुदी से या खुदा खुद ब खुद डरने लगे

कैसी बहारें अब के आयी,वीरानगी ये कैसी छायी
बागबाँ कैसा है जो गुलशन में गुल मरने लगे

आईन के चटखे हुए से ,आईने में झाँक कर
शक्ल जो देखी तो अपने आप से डरने लगे

ऐसी भी तो जल्दी है क्या ठहर देख मंज़र ज़रा
आग जंगल में लगी और राजपथ जलने लगे

दर्द की ये दास्ताँ किसको सुनाये जा के हम
तुम ही इसको गुनगुना लो लब मेरे थकने लगे

रस्मे उल्फत राहे दुनिया सीधी भी है टेढी भी है
हो सके दीवाना कर दो दीवार ओ दर ढहने लगे

झोपड़े की राख से कोई तो चिंगारी उठाओ
लौ से लौ की लौ लगाओ जो रौशनी मरने लगे

चंद ख्वाबों के सहारे कट तो जाती जिंदगी
नींद का इक घर क्या उजड़ा ख़्वाब भी मरने लगे


और सनद भी रहे ...

मेरे लिखे हुए पे
दस्तखत इक
बना देना
फिर मुझे वो खत
वापस हरगिज़
नहीं देना
मेरा हाल तुम्हें
मिल जाएगा
और तुम्हारे मन का
पता हमें भी
चल जाएगा
यूँ पोशीदा ही रहे
और सनद भी रहे .....

अक्ल परीशां कि दिल बदले,
दिल परीशां कि अकल बदले

कभी तो खुशगवार मौकों पे
उदास लम्हों का दखल बदले

आइना भी अब डराये है मुझे ,
जिंदगी कुछ तो शकल बदले

चाँदसूरज जमीनओआसमान
कहीं तो कुछ आजकल बदले

बाद खुदकुशियों के कमसकम
क्या बदला आज जो कल बदले

हर्फों के नए बीज डालो तो सही
नारों की कुछ तो फसल बदले

निजाम बदल बदल के देखा है
नाजिमों की अब नसल बदले

वो जो ताजिदगी पामाल रहा
उसकी पेशानियों पे बल बदले


आत्मा का पक्ष............

गर्म है मौसम
पसीने पसीने हुआ जाता है
खून का दबाव
बेहद बढ़ा हुआ है
सीने के बाएं कोने से
उठता है
बेहद चुभता है दर्द
लहरा उठता है
बाएं बाजू में
आत्मा जरूर
वहीं रहती होगी
बाएं कोने में
आत्मा ने चुन लिया है
अपना पक्ष
कभी भी रुक सकती है
देश कि हृदय गति ......

हर कोई यहाँ चुप है बोलना मना है
और अँधेरा घुप्प है डोलना मना है

भूख के विरुद्ध कोई अनशन मना है
आत्मा हो शुद्ध तो जीवन मना है

हुकुम तो हुकुम है,उदूली मना है
हो जमीर क़र्ज़ में वसूली मना है

तुकबन्दियाँ खूब करो,नारा मना है
कोरस में कोई गीत गाना मना है

सर्दियों में चीथड़ों में कांपना मना है
और तिरंगे से बदन को ढांपना मना है

झालरें से घर सजाओ परचम मना है
रात के आँचल में तारे टांकना मना है    

घर के किवाड़ बंद रखो झांकना मना है
खिड़कियों से मुँह उठा के ताकना मना है

सर को झुकाये ही रखो,उठाना मना है
इस निजामे कोहन का,सामना मना है



शामिल है आईन में हुकूक,बस बांच लो
उन हकूकों के लिए मारना मरना , मना है
तोहमतों की चादरें जितनी ओढा दो
पुरउम्मीद ख्वाब बंद आँखों में रहें
तब्सरा कोई ,ज़ुबानी मना है
दर्द हद से गुजर जाए तो रो लेना
कल नुमाइश में मिले जो चीथड़े पहने हुए
उसको हिन्दुस्तान कहना अब,मना है
आशिकी जम के करो ,
रूठना मना है
संग दिल को बनाओ ,चलाना
मना है
आंसू टपक ले आँख से लहू मना है

सर्दियों में चीथड़ों में कांपना मना है
और तिरंगे से बदन को ढांपना मना है

झालरें से घर सजाओ परचम मना है
रात के आँचल में तारे टांकना मना है  


चापलूसी के सिवा साहब को कुछ भाता नहीं
मुझको सीधी बात करने के सिवा आता नहीं

दौड़ है चूहों की इसमें बोलो मैं कैसे बढूँ
चाहता हूँ मैं भी बढ़ना पर बढा जाता नहीं

अब नहीं हैं रेंगती ये साहबों के कान पे
हम भी जुओं से नहीं है रेंगना आता नहीं

दीमको के इस शहर में लकडियों की कोठियां
हादसा होने को है और कोई चिल्लाता नहीं

हाकिमों की जी हुजूरी में गुजर गयी जिंदगी
अब उन्हें इसके सिवाये और कुछ आता नहीं

हैं बड़े एहसान हम पे हम करें तो क्या करे
दूजा चढ़ जाए है मुझपे पहला भर पाता नहीं

मुँह छिपा न् पाए तो नजरें झुकाना सीख ले
बेशरम इतना है कि इतना भी कर पाता नहीं

हम तरक्की चाहते तुम भी तरक्की चाहते
जिस तरह तुमने है पायी उस तरह आता नहीं

जिंदगी शतरंज की पुरपेंच बाज़ी हो गयी
चाल चलना चाहता हूँ पर चला जाता नहीं

तुमसे मिलने की कोई सूरत नहीं आती नज़र
और तुम्हारे घर से पहले मेरा घर आता नहीं

मैं भी आखिर आदमी हूँ कुछ खता हो जाती हैं
हर खताओं की सजा हर कोई तो पाता नहीं

और मैं कैसे कहूँ के हमको तुमसे प्यार है
तुम भी हो खामोश और मुझसे कहा जाता नहीं

जिस्म में पत्थर पड़े हो और सुनवाई न हो
हथियार तब उठ जायेंगे ये कोई उठवाता नहीं

जब से माँ गुजरीं हैं मेरी तब से ले कर आज तक
कोई उतने प्यार से अब मुझको सहलाता नहीं

उस जवां लड़की ने जब से सर उठाना सीखा है
कुछ और ही सूरत है उनकी वो पिता माता नहीं

मैं गज़ल कह लूं तो आकर तुम कसीदे काढना
माफ करना अब भी मुझको ये हुनर आता नहीं

एक दो बीमारियाँ मुझको विरासत में मिली
रीढ़ की हड्डी पे अब भी चोट सह पाता नहीं

बख्शो मुझे इज्ज़त तो मेरा सर वहीं झुक जायगा
बेवजह सजदे में ये अब ज्यादा रह पाता नहीं


माँ ! तुम्हारी छवि
एक कुहासा है
पार इस के
कोई कहाँ जा पाता है
मैं आ रहीं हूँ
कुहासे के उस पार
जहां तुम होगी
और मैं
खुल कर बातें करेंगे
जैसे बात करती है
एक स्त्री दूसरी से
बेपर्दा .......

माँ
देखना है
तुम्हारा घूंघट
तुम्हारा वास्तव
शाश्वत छवि उलट
जानना है
किस धातु का बना है
तुम्हारा कंगन ,तुम्हारा बिछुवा
तुम्हारे सारे आभूषण
तुम्हारे स्वेद अश्रु के सान्द्र विलयन में
सब घुलता आया है अद्यतन
तुम्हारे रक्त मांस का
एक हिस्सा हूँ मैं ....
तब इतनी
अघुलन शील क्यों
अपने स्त्री रूप में ...
क्यों नहीं घुल पाती
इस खारे विलयन में
क्यों फांस सी अटक जाती हूँ
तुम्हारे मन में
त्याग और ममता का आवरण भी
अब तो अक्सर
उतर जाता है
कोई अनजाना अनचीन्हा भयानक
चेहरा नज़र आता है
तुम्हारी अँगुलियों के नाखून भी
कितने बड़े हैं
मेरे कलेजे पे भी तो
फफोले पड़े हैं
आखिर किस धातु के गहने
फिर मुझे सौंप रही हो
इस बोझ को ढोना नहीं चाहती
अब और रोना नहीं चाहती
किन युगों में
धातु कर्म की किस जटिल रासायनिक क्रिया ने
इन् धातुओं का निर्माण किया
जिसका गलनांक
तर्क और विवेक के ताप से परे है

मैं
उस शास्त्र को
उन शास्त्रियों को
प्रणाम करना चाहती हूँ
और उनकी इजादों को भी
अंतिम प्रणाम ......

मैं,
आ रही हूँ.. माँ
तुम्हारे कंगन उतार
कुहासे से पार
जा रही हूँ .......माँ

कुछ अजीब सी महफिल है
है , जिस्म कहीं कहीं दिल है

बस शराफत के मारे हुए हैं
जनाजे में.. तभी कातिल है

यूँ हुआ वो..... चश्मेबददूर
होंठो के नीचे.. कोई तिल है

कुतरना हुआ आसाँ कितना
जहाँ चूहे हैं....... वहीं बिल है

दरिया मिटा लेता है वजूद
समंदर बड़ा.... तंग दिल है

कितना करीब हो सके कोई
आस्तीन में जिसका बिल है

ओ मेरे अनसुने बादल
अब न कर
तू और घायल
देख तो ,
ये रात काली
टांकती तारों से आंचल
पूछती है,सज संवर
कहाँ है तेरा ठिकाना
उसको तेरे साथ
आज है किस देस जाना
सूर्य के उत्ताप से
तेरी धरा है तप रही
एक तेरा ही नाम
मानों निरंतर जप रही
ओ मेरे अनसुने बादल
देख तो ,
उस चाँद को
जो हौले हौले चल रहा
रात का तारों टंका
आंचल समेटे
घेर अपने पाश में
आज उसको
जकड फिर से
छा जाए तू उम्मीद सा
पूरे गगन में
सृष्टि हो मगन
नर्तन में


घन घोर बरसे
दिन बदल दे शाम में
तप रही है जाने कब से
तेरी धरा इस घाम में
बस इसी उम्मीद में कुछ सिक्त हो लूं
अपने सूनेपन से थोडा रिक्त हो लूं ..........


आस्मानोजमीन
उनको दरकार हो जितनी
हर हाल में,
कमोवेश मुहैया तो हो उतनी
दौर ऐसा है के बच्चों को
गमलों से निकाला जाये
ज़माने की आँधियों में ,
हमलों में ही पाला जाए
धोबी के गधों सा बोझ
उठाये हुए बच्चे
बचपन से रीढ़ कमान सी
झुकाए हुए,बच्चे
ऑटो की पीठ पे जैसे
लटकाए हुए बच्चे
अलस्सुबह रिक्शों पे
कुम्हलाये हुए बच्चे
सीरियलो के सौजन्य से
बुढाए हुए बच्चे
स्कूल जाते ममता से
ठुकुराए हुए बच्चे
मन के सच्चे न हुए बच्चे
मानो बच्चे न हुए बच्चे
असमय पकाए जा रहे है
जो बाजारी फलों जैसे
बच्चे कहाँ रहे
जो कच्चे ना रहे ......


आज़ादी
उस विशाल किले का नाम है
जिस पर कुछ लोगों का
अवैध कब्ज़ा है
जिसके दरवाज़े पर
मजबूत पहरा है
और किला बंद है
भीतर से
किले के भीतर अँधेरा है
कोई राज़ बड़ा गहरा है
साल में कभी कभी
कोई नज़र आता है
मुनादी करते हुए
किले के बुर्ज से
वायदा बाज़ार का कोई खिलाड़ी
बोलियां लगात हुआ


आधे चुप हैं डर से
आधे संतुष्ट हैं
अपने टूटे फूटे घर से
कुछ हवेली के बाहर उग आयी
खर पतवार साफ़ करते हैं
कभी दीवारों पर उग आये
खून के धब्बे धोते हैं
और मन ही मन रोते हैं
इसमें उनके अपने
बच्चे भी होते है

जी , १५ अगस्त
वही तिथि है
और आज़ादी
कोई अतिथि है
१९४७ में इसी रोज वो
दरवाज़ा खटखटाती है
पर दालान में ही
धंस कर
बैठ जाती है
घर के भीतर
कभी नहीं आती है
दुनिया को
घर के दरवाज़े पर ही
नज़र आती है
हँसते हुए , मुस्कुराते हुए
घर वालों को
पलट कर
मुँह चिढाते हुए........


न बोलिए न सुनिए बस देखते रहिये
अपने ही हाथों अपना गला रेतते रहिये

मुमकिन न हो ऐतबार अपनी ही बात पे  
बस एक झूठ बोलिये और फेंटते रहिये

किस किस को बताएं वजहेतर्केतालुकात
अपने गरेबां में मुँह छुपाइये झेंपते रहिये

झूठ के कोहराम में सच की सुनेगा कौन
भाड़ में सच्चाई फिर भी झोंकते रहिये

हर ओर तो लगी है आग मौका निकालये
कुछ रोटियां अपने लिए भी सेंकते रहिये

जिसने भी पढ़ रखीं हैं दो चार किताबें
ज़िन्दान में उम्र भर के लिए फेंकते रहिये

उनके क़ुतुब खानों में हैं जानवर बहोत
कुत्तों को छांट लीजिए और भौंकते रहिये

जब इन्साफ की देवी की आँखों पे है पट्टी
अन्धो के इन्साफ का हुनर देखते रहिये

सूखी हुई लकडियों में ये हौसला भी है
बुझने नहीं पायेगी आग देखते रहिये

कुछ जिंदगी का खौफ कुछ रद्देअमल का डर
बैठे बिठाए इन्कलाब का वजन आंकते रहिये

इन् जहर बुझी हवाओं का हम ,क्या गिला करें
खुशबुओं का ही सही चलो अब सिलसिला करें

याद कर पाना उन्हें जो भूल बैठे है हमें
ऐसा मुश्किल नहीं तो क्यूँ ना मिला करें

एक जो गुलशन में है और दूजा जो गुलदान में
जड़ से उखड के गुल कोई क्यूँकर खिला करें

आसानियाँ दुश्वारिया सब दोस्त है हमराह है
इससे ज्यादा जिंदगी पे हम और क्या कहें

हाशिए पे है पड़े जो,एक नज़र उन पे करो
वो कौन है इनका खुदा ये आलिम बयाँ करें

जिस्म सा मैं बच गया इक जान थी चली गयी
तकदीर का ये तब्सरा तो क्या खुदा करे

भूख से करवट बदलते, नींद आये भी तो कैसे
दिल से पहले बुझ गया चूल्हा,तो क्या करें

एक उम्र से जो हाशिए पे हैं पड़े हुए
खुद ही लपक के उनसे क्यों न मिला करें


कभी ख़्वाब बन के नींद में आओ तो कोई बात बने
जो सो चुके हैं उनको जगाओ तो कोई बात बने

इन् खुश्क हवाओं में यूँ ही सब सूख रहा है
घटाओं झूम के छा जाओ तो कोई बात बने

मुमकिन है के दुश्वारियां राहों में बहोत हैं
कुछ खार तुम भी हटाओ तो कोई बात बने

शेरो सुखन से भी कभी कोई फर्क पड़ा है
जरा मैदान में आओ तो कोई बात बने

खामोशियों का क्या सिला यहाँ तुमको मिला है
मेरी आवाज़ में आवाज़ मिलाओ तो कोई बात बने

शुभकामनाएं !
भीतर कहीं गहरे धंस जाती हैं
इक फांस सी फंस जाती है
न जाने कितनी फाँसें
अटकी हैं ऐसी
जारी हैं लगातार , साल दर साल
जन्मदिन पर कभी
बरस गांठ पर विवाह की
इस कुचैली गठरी में
कितनी गांठें पड़ती जाती हैं
हर बरस एक एक कर
क्रमशः खुलती जाती है
भीतर का सारा सच
उगलती जाती है
दिल भी थेथर है
बिला वजह बल्लियों उछलता है
फांस तब थोडा और धंस जाती हैं
गांठे खुलना जब
बंद हो जायेंगी......... तब
शोक जरूर मनाना
अपने संदेशों का सोग जरूर मनाना
उस अपात्र जीवन पर
कामनाओं से भी जिसे
कोई हौसला न मिला
जैसा जीना था जीवन नहीं जिया
स्यापा करना उस जीवन का
शुभ न हो सका जो
व्यर्थ करता रहा कामनाएं
रहा खुद में मगन , आजीवन
नियन्त्रित करता रहा
अपने रक्त में मधु स्तर
नापता रहा बिला नागा , रक्तचाप
एक दिन दिल का दौरा पड़ ही गया
उस रोज वो अंततः मर ही गया


मेरे मोहल्ले में सुना कल रात कोई मर गया
कनखियों से झांकता उस घर को मैं दफ्तर गया

रास्ते में जो पड़ीं सारी इबादतगाहों पर
मैंने तरक्की पायी थी सो मैं झुकाता सर गया

था मिठाई का बड़ा डब्बा हमारे हाथ में
शाम जब गहराई उसके बाद ही मै घर गया

बाकायदा अफ़सोस करने जब मै जाने को हुआ
पुख्ता बहाना सोचने के बाद ही भीतर गया

क्यों मैं सोचूँ के मेरा भी हश्र होना है यही
पहली फुर्सत में ही तो सीधे मैं उनके घर गया

मेरी गाड़ी से जरा सी ही तो बस ठोकर लगी
बात कोई और होगी इतने से ही क्यों मर गया

नीली बत्ती थी लगी क्यों खामखा टकरा गया
औंधे रिक्शे से निकल बीमार काँधे पर गया

मोमबत्तियाँ जिसने बनाई अब शुक्रिया कैसे करूं
पर जेहन से मुँह छिपाना आसां कितना कर गया


मेरे मोहल्ले में एक रिक्शा वाला रहता है , नाम है ' जमाल ' , मेहनती और ईमानदार आठ बच्चों का बाप , दो अदद बीवियों का इकलौता शौहर उसके आठ बच्चों में उम्र का फासला उतना ही जितना कुदरत किसी होम सेपियन ( homo sapien ) को इजाज़त दे सकती है | जमाल का जिक्र मैं इसलिए कर रहा हूँ कि आज से ठीक तींन दिन पहले मेरे बेटे का जन्म दिन था और सुबह ऑफिस जाने से पहले घर में पत्नी से इसी बात पर विमर्श हो रहा था कि आज क्या किया जाए ? विशु का जन्म दिन कैसे सेलिब्रेट किया जाए या फिर कुछ किया भी जाए या नहीं , नतीजा सिफर ........कुछ भी तय नहीं हो पा रहा था | दफ्तर के लिए देर हो रही थी सो मैं निकल पड़ा | दफ्तर में भी कुछ देर तो इसी उधेड़बुन में रहा फिर अमूमन दफ्तर जैसे अपना समय आपके जीवन से अपनी जरूरत के मुताबिक़ काट कर निकाल ही लेता है तो उस रोज भी दफ्तर ने अपनी जरूरतें मेरी मसरूफ़ियत में तब्दील कर दीं और कब शाम हो गयी पता ही नहीं चला | दफ्तर से छूटते ही फिर अचानक सुबह की बात याद आ गयी लेकिन यह सोच कर घर फोन भी नहीं किया कि कही अगर बेटे ने उठा लिया तो ......एक अपराध बोध में जो सर झुका तो सीधा घर के गेट पर ही कालबेल बजाने के लिया उठा , मैंने ध्यान भी नहीं दिया कि इस बीच किसने गेट खोल दिया और मैं अपनी धुन में सीधा घर के मुख्य दरवाजे पर पहुचा | दरवाजा पहले से ही खुला हुआ था | अचानक नज़र पड़ी तो देखता क्या हूँ कि जमाल सपरिवार मेरे घर में आया हुआ है ,मेरे ही घर में उसने मेरा स्वागत कुछ इस तरह किया मानों मैं ही अपने घर में मेहमान हूँ | मैं बड़े अचरज में था कि ये क्या हो रहा है उससे ज्यादा यह सोच रहा था कि ऐसा क्यों हो रहा है ? जमाल की दोनों बीवियां और उसके आठो बच्चे , पूरा घर सजाने में इतने मसरूफ थे उन्हें यह ध्यान ही नहीं रहा कि मैं कब से अपने ही घर में हतप्रभ खड़ा हूँ और लगातार उन्हें कौतूहल से देखे जा रहा हूँ | जमाल की बीवी ठेठ देहाती अंदाज़ में सोहर की पारम्परिक धुन में कुछ साथ साथ गुनगुना भी रही थी | संगीत का रसिक ठहरा , सो ध्यान से सुनने लगा ...
तिरिया के जनमे कवन फल हे मोरे साहब ,    पुतवा जनम जब लेईहें तबै फल होईहैं |  पुतवा के जनमे कवन फल हे मोरे साहब ,     दुनिया अनंद जब होई तबै फल होईहैं || '' अब्बा ! मिठईया त अब ले नाहीं आइल .........जमाल का एक बेटा चीखा | अब तक माजरा मेरी समझ में कुछ कुछ आने लगा था | कमरे की एक दीवार के कोने से दुसरे कोने तक चाइनीज़ झालरों की लड़ी , दरवाज़े पर पारंपरिक हिन्दू विधान में सजी बंदनवार , अंदर झूमर टांगने वाली खाली जगह से ज्यामितीय आकार में सजायी गयी रंगीन गुब्बारों की लड़ियाँ , बीच में एक छोटी चौकी जिस पर लाल शनील बिछी हुई थी कुछ रखे जाने के इंतज़ार में  ......| पूरा घर भूने जा रहे मसालों की खुशबू से सराबोर , बच्चों की चिल्लपों , पत्नी के अलावा घर में दोतीन और महिलाओं का अतिरिक्त व्यस्तता में लगातार इधर से उधर आना जाना अच्छा भी लग रहा था पर कही कुछ बुरा भी |घर की तमाम महंगी चीज़ों की दुर्गति करते जमाल के बच्चों देख मेरा मध्यवर्गीय मन लगातार आहत हो रहा था , अपने ही घर में  बेबसी का ऐसा आलम कि खुदा खैर करे ....! | तब अचानक  पत्नी की आवाज़ मेरे कानों में पड़ी , वो मुझ से ही मुखातिब थीं .....कुछ बता कर तो दफ्तर गए नहीं थे कि आज शाम को क्या होना है , कैसे होना है  ? आज जब विशु स्कूल से लौटा तो बहुत उत्साहित था अपने जन्मदिन को लेकर ., आते ही पूछा , ''आज शाम के फंक्शन में किस किस को बुलाना है , मैं अभी जाता हूँ और कालोनी में और कुछ अपने दोस्तों को इनवाईट कर आता हूँ | हाँ , इस बार बड़ा वाला ही केक काटेंगे , पापा को फोन कर दो कि ऑफिस से लौटते वक्त वैसा ही बड़ा वाला केक मोडला बेकरी से लेते आयेंगे जैसा शुभम भैया ने काटा था | और तुमने भी फिर फोन क्यों नहीं किया , मैंने पूछा | झल्लाते हुए पत्नी बोली अरे ! सिर्फ केक ही तो नहीं कटना होता है कितनी तैयारी भी तो करनी पड़ती है , कुछ तय पहले से हो तब ना फोन करती ......मैंने पूछा , तब ये सब क्या हो रहा है ? ये लोग यहाँ क्या कर रहे हैं | पत्नी ने  तफसील से बताया कि आज अचानक करीब तीन बजे रिक्शे से जाने वाले सभी बच्चों को छोड़ने के बाद जमाल आया और कहने लगा मैडम जी ! आज बाबू का जन्मदिन है , शाम को आपके यहाँ बहुत काम होगा , बाहर से मेहमान आयेगे , गाना बजाना , खाना पीना सब होगा , आप बुरा न माने तो मैं अपने बीवी बच्चों को जब कहें तब भेज दूंगा , आपकी मदद हो जायेगी | मैंने उदास मन से उसे बताया कि नहीं आज कुछ नहीं होना है , सुबह ऑफिस जाने से पहले इस बात पर चर्चा तो हुई थी पर कुछ भी डिसाइड नहीं हुआ |हालांकि विशु जिद कर रहा है लेकिन इतनी जल्दी किया भी क्या जा सकता है | शाम को मंदिर चले जायेंगे , विशु को भगवान का दर्शन करा देंगे बस | तुम परेशान मत हो , अभी घर जाओ , कोई जरूरत होगी तो जरूर बताएँगे | इतना सुन कर जमाल चला गया और एक ही घंटे के बाद अचानक पूरे परिवार के साथ आ गया , कहने लगा - मैडम आप बुरा मत मानियेगा , आज बाबू का जन्मदिन है , ऐसे मुकद्दस मौके पर बाबू को दुखी मत कीजिये , आप बाबू को मंदिर दर्शन करा लाइए , लेकिन जनम दिन भी उसका जरूर मनाया जाएगा , पूरी खुशी से.........साल में एक ही तो दिन आता है और इस मुबारक मौके पर बाबू को दुखी करना गुनाह है गुनाह ! मेरे पास उसके इस तर्क का कोई जवाब न था , मैंने हामी भर दी , इधर स्वीकार में मेरे मुँह से ' हाँ ' निकला ही था कि उधार जमाल और उसका पूरा परिवार समारोह की तैयारी में लग गए | नतीजा , तुम देख ही रहे हो , करीब पचास साठ लोगों का नाश्ता खाना तैयार होने को है , पूरा घर भीतर बाहर सजा दिया गया है | और जमाल की दूसरी बीवी गाती बड़ा अच्छा है , कह रही थी आज तो वो कई सोहर गाने वाली है | खैर , मिठाइयां आई , केक काटा गया नाश्ता खाना हुआ और इसके बाद माहौल बच्चों की धमा चौकड़ी के बाद जब कुछ थिराया तो जमाल ढोलक ले कर बैठा उसकी एक बीवी मजीरा लेकर बैठी , सोहर शुरू हुआ ...एक के बाद दूसरा फिर तीसरा और फिर ..........जीवन में पहली बार ऐसा समारोह देखा , परंपरा और आधुनिकता का अद्भुत फ्यूजन , माहौल ऐसा हुआ जैसा जीवन में पहले कभी घटित नहीं हुआ | धीरे धीरे रात गहराती गयी , ढोलक की थाप और सोहर के सुर मद्धम पड़ने लगे |धीरे धीरे सब विदा हुए | सब लोग एक एक कर चले गए , बच्चे भी बिस्तर पर लुढक गए पर मेरी आँखों में नींद कहाँ ? मैंने पत्नी से पूछा , ये अचानक जमाल और उसके पूरे परिवार को ऐसा क्या हो गया कि पिछले दस महीनों से , जब से हम इस मोहल्ले में आये हैं वह विशु को स्कूल पहुंचा रहा है पर मजाल है कि उसने घर की चौखट के भीतर कदम भी रखा हो , महीने का पैसा भी लेना होता था तो गेट पर ही खड़ा रहता था | आज उसका, ये बदला हुआ रुख कुछ समझ में नहीं आया .........| आज दिन में कुछ हुआ था क्या ? मैंने पूछा , पत्नी ने मेरा हाथ अपने हाथों में लिया कहने लगीं कि आज जब तुम ऑफिस चले गए थे तब मैं भी इसी उधेड़बुन में थी कि आज शाम को विशु का जन्मदिन कैसे मनाया जाएगा | विशु करीब डेढ़ बजे स्कूल से लौटा  , रिक्शे की आवाज़ सुन कर मैं बाहर आयी | मेरी समझ में कुछ नहीं आया रहा था फिर भी  मैंने जमाल को रोका , भीतर गयी पर्स खोला , १०१ रु निकाले , बाहर जमाल को देते हुए मैंने कहा यह रमजान का मुकद्दस महीना चल रहा है , आप पांच वक्त के नमाज़ी है , इस माहे पाक इतनी मेहनत करते हुए भी रोज़े पर हैं | आज शाम आप इन्ही पैसों से मिठाइयां खरीद कर अपना और अपने परिवार में जो भी रोज़े से हैं उनका  रोज़ा खोलियेगा | एक इल्तेज़ा और कि,  इस माहे पाक में मेरे बेटे की बरक्कत और सलामती की दुआ कीजियेगा आप खुदा के नेक बंदे हैं उपरवाला आपकी दुआ जरूर क़ुबूल फरमाएगा इस बात का पूरा यकीन है मुझे | इसके बाद मैंने देखा वह इतना खुश हुआ कि खुशी से उसकी आँखे भर आई | उसने कहा तो कुछ नहीं , मुड़ा और आँखे पोंछते वापस हो लिया | उसके बाद जो कुछ भी है वह तुम्हारे सामने है |कैफी साब के अलफ़ाज़ हौले हौले हम दोनों पर तारी होते जा रहे थे .......'' आँखों में नमी हंसी लबों पर , क्या हाल है ,क्या दिखा रहे हो ....".........देर रात तक नींद का आसरा देखता रहा , जमाल की बीवी का सोहर अपनी शक्ल साफ़ करता जा रहा था ...''...........  दुनिया अनंद जब होई तबै फल होईहैं......





(एक )

गुरुत्वाकर्षण कम था
या धरती से मोह भंग
पता नहीं .......

मेरा ही कोई दोस्त था .....नील आर्म स्ट्राँग
लंबे लंबे डग भरता
निकल गया
मैं तकता रह गया
उम्मीद के उस टुकड़े को
जो कभी चाँद सा चमकता था
गहरी उदास रातों में
निकलता नैराश्य के अँधेरे गर्त से
उजास की तरह
और फ़ैल जाता
चला गया एक दिन

हाँ , खबर तो यही थी
तस्वीर भी छपी थी
उस रोज
कि मेरे उसी दोस्त ने
झंडा गाड़ दिया
मेरे चाँद पे ,
उसकी धरती ने जीत लिया
मेरा चाँद

यहाँ ,
चिलचिलाती धूप में
कोई झंडा नहीं दीखता
दीखता है
सगुन का बांस
उसपे फहराता झंडा  
जिसे कभी गाडा था हमने .....
कुआं खोदने के बाद
गाँव में ...

हम बदल रहे थे
धरती का रंग
वो जीत रहा था
एक बंजर जंग
वो आसमां से भी ऊँची
छलांगें लगा रहा था ,
और हम जमीन पर
चल रहे थे
वो बदल चुका था
और हम ,
बदल रहे थे
वो बूझ रहा था पहेलियाँ
हम जिन्दा सवाल हल कर रहे थे


 (दो)

नील ! जब से तुम्हारे
पाँव पड़े हैं चाँद पर
तब से ही कहीं लापता है
वो चरखा चलाती बुढ़िया
कहाँ गयी होगी .....
किसी अन्य ग्रह पर
या होगी यहीं कहीं , पृथ्वी पर
कांपते हाथों से फूल चढाते
उस बूढ़े की समाधि पर
जो जीवन भर कातता रहा सूत
चलाता रहा चरखा........
स्मृतियाँ खींच लाई हो उसे पृथ्वी पर
तो क्या बुढ़िया को
ये भी पता चल चुका है !
कि उसके बूढ़े को मारने वाला
अब तक फरार है ,
उस की तलाश में
कहाँ कहाँ भटकेगी ,
साबरमती तट तक भी
क्या वो जायेगी
जहां ले रखी है उसने शरण
आजकल
तो क्या नील
तुम ने उसे सब कुछ बता दिया  ......

या फिर ऐसा
तो हो ही सकता है
इतिहास दोहराने की कोशिश की हो तुमने
निर्जन चाँद पर बदहवास जान हथेली पर लेकर
तुम्हारी नज़रों से बच बचा कर
चोरी छिपे सवार हो गयी हो यान में
और आ गयी हो पृथ्वी पर
खड़ी हो वहीं
करबद्ध , संपीडित स्वजनों में
आँखों की कोरों में बांधे
शताब्दियाँ का ज्वार ,दुर्निवार
स्टेच्यु ऑफ लिबरटी के गिर्द
शोक सभा में .........

कि पता चला चुका हो उसे नील
तू  कोलंबस का ही वंशज है
और चाँद पृथ्वी के बाद
अमरीका का दूसरा उपग्रह है........