सोमवार, 3 सितंबर 2012


ठन ठना ठन, ठन ठन ठन ..
by Pankaj Mishra on Friday, April 20, 2012 at 11:43pm ·
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कभी कभी क्यों हो जाता है,
बच्चे जैसा मन
बिना विचारे कुछ करने का,
क्यूं करता है मन

सोच समझ कर देख लिया ,
गुणा भाग कर देख लिया
जीवन के इस अंकगणित से ,
होती है उलझन

झूठ को नंगा करने का,
सच को सच कह सकने का
साहस पैदा कर पाता ,
बन जाता दर्पण

खुश होने पर गा न पाऊं ,
चोट लगे चिल्ला न पाऊँ
खुद से आँख मिला न पाऊं
उफ़, ये दुह्सह्य दोहरापन्

किस्से क्या,व्यवहार करू,
किसका कब, दरबार करू
हरदम यही, विचार करू ,
भाड़ में जाये, अनुशासन

खीस निपोरे, हे हे करना,
जूती भी सर, माथे धरना
सहम सहम,कब तक जीना ,
छोड़ छाड दूं ,ये जीवन

केवल सुख सुविधा है जोड़ी,
इसकी उसकी ,बांह मरोड़ी
जो भी आया, जैसे आया,
पाई पाई, आना कौड़ी

घर बाहर सब,भरा हुआ है ,
वो इतराया,खडा हुआ है
भीतर का बच्चा, चिल्लाये.......
ठन ठना ठन, ठन ठन ठन ...

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