रविवार, 1 जुलाई 2012


जरा................झर......ज़रा ज़रा


हर रोज , मुंह अँधेरे , बड़े करीने से
स्वाभाविक सहजता से सहेज ,
सरका दिया जाता हूँ
किसी अँधेरे , अपश्य आंतर में
अलस्सुबह ,
क्यों किया जाता है , ऐसा
किस से अलक्षित किया जाता हूँ ,
क्या है.. जो दिवस से ,
बोल दूंगा
क्या छिपाना है जिसे ,
फिर खोल दूंगा,
कल तक ,
सबसे अभिन्न अविभाज्य
अब क्यों हुआ
विच्छिन्न त्याज्य
छत पे जाती सीढ़ियों के नीचे,
जो टूटी खाट है
वो ही तुम्हारा और हमारा घाट है

तुम हो .........इस घर का कूड़ा
मै अभागा ......... घर का बूढा

एक ही है तुम्हारी और मेरी व्यथा
एक सा जीवन,एक जैसी ही कथा

भीतर अपने ये क्या क्या समेटे हो
टूटे बल्बों के टुकड़े
मेरी चाँदनी चादर के चीथड़े ,
सब के सब लपेटे हो
टूटे टुकड़े चूडियों के,
कुछ धूसर धागे , अभागे ,
धूल मिट्टी में पगे,
न जाने और क्या क्या
लपेटे.....कब से लेटे हो
इसमें हमारी ही बुझी हुयी दो आँख है
टूटने , बुझने , से पहले हुआ करती थी,
इन्ही बल्बों में ,
पीली पकी सी रौशनी ,
इस बूढ़े रोशन दान की
जर्जर झिर्रियों से
कभी आती थी
सूने घर में रौशनी
झिलमिलाते वक़्त की ,
झिलमिलाती झिर्रियों से,
झर झर , झर गयी , जर्जर रौशनी,
मेरा दूधिया समय,
पियरा गया
आँखों से एक दिन जो टपका लहू
पथरा गया ............

और ये ,
मटमैला मोटा चीथड़ा सा ,
क्या लपेटे हो
मेरी चांदनी चादर पुरानी ,
क्यों समेटे हो
ओढता था सारा कुनबा जिसे,
उन , सर्दियों की शामो में
बस इसी का तब,
एक आसरा था
प्राईमरी के मास्टर के पास , कहाँ
सबके लिए ,
कम्बल धरा था
बाद फिर वो ,
घर का पोछारा रह गया
धूल मिट्टी , दाग धब्बे
साफ़ करता , पोछता
सर्दियाँ ओढ़ी थी सबकी ,
धूल माटी ओढता
बूढ़ा हो गया...,..घर का कूड़ा हो गया

कुछ काली सफ़ेद उलझन सरीखी हैं दिखी
समय के धूसर धागों में धंसी ,
कुछ लटें उलझी , अनसुलझी
कुछ वैसी ही जो ,
एक अभागी बुढ़िया ,
रोज रात सुलझाती थी,
हरदम , सोने से पहले
बस उस एक रात
वो क्या सोयी ,
मेरे सोने जाने से पहले
हमेशा के लिए सुलझ गयी,
मेरे , दो बूँद रोने से पहले

उन दो बूंदों का कर्ज ,
बहुत सालता है
बूँद बूँद सा , अंतर से ,
उतर आता है

और जो ,
लाल हरी चूडियों के चमकीले टुकड़े पड़े है
वो तभी से मेरे सीने में गड़े है
हाँ सधवा ही मरी थी,
और तब ,
वो लाल थी, हरी थी
याद करती आज तक उसको ,
जो मेरी डायरी थी
उसको भी
मैं तुममे देख रहा हूँ

कल रात ,
पुरानी डायरी के पन्ने ,
पढते पढते , भीज गए थे
गीली , सीली स्मृतियों से
सीझ गए थे
अक्षर कुछ काले , कुछ नीले
काले कठुआये , काठ हुए
नीले , अब भी सपनीले थे
दो बूँद पड़ी तो पसर गए
रात, मेरे बिस्तर में , गिरकर लसर गए
बरसो बाद , हम दोनो सोये साथ साथ
बरसों बाद देर से जागा हूँ ......

मुंह अँधेरे जब सो रहा था ,
किसने करीने से ,
इसे सरका दिया
इस अँधेरे अपश्य आंतर में
मेरे रहते , ये जघन्य
मेरे ही घर में
तुम, अपने पास इसे ,
कैसे रख सकते हो
समय कर न सका जो ,
तुम कैसे कर सकते हो
यही तो एक तीसरा बल्ब है
जो भीतर अब तक
जल रहा था
इसी एक सपने के साथ तो
जीवन पल रहा था
ये कैसे कूड़ा हो गया ?

क्या सब कुछ
कूड़ा हो सकता है
सपना भी क्या
बूढ़ा हो सकता है ?

अब भी इस सूने घर में
उम्मीदों के छौने , खेल रहे हैं
वो छुम्मक छुम्मक आएंगे
कुछ तुम संग वो खेलेंगे ,
कुछ मुझसे भी बतियाएंगे
देखो , कैसे वो करकट से
कुछ खोज बीन
तेरे सरमाये से छीन छीन
जीवन के , मरघट तक लायेंगे
टूटे बल्बों के टुकड़ों से ,
गुडिया की आँख बनाएंगे
उसके दोनों सूने हाथों को
फिर चूडियाँ पहनायेंगे
चांदनी चादर की दुशाला से
बिखरे हुए मनकों की माला से
फिर से उसे सजायेंगे
मेरे कंपकपाते हाथों के झूले में दे,
मुझ से ही फिर , झुलवायेंगे
इस बूढ़े कूड़े की
नीली कुम्हलाई , लोरी
संग संग गाते , तुतलाते
गुडिया को,
फिर मुझ से ही सुलवायेंगे

तुम देखना,
उस गुडिया को
मैं अब यूँ न सोने दूंगा
अपने सोने से पहले
अब कोई
कर्ज न रहने दूंगा ....
फिर हम दोनों दुखिआरे ,
इन्ही उम्मीदों के सहारे
संग स्वप्नलोक में जायेंगे
पार... तिमिर के.......
जीवन-शिविर के ..... ..
पास अनुभव तप्त मिहिर के
आज वो बुला रहा है
उम्मीद का छौना
फिर नींद में मुस्का रहा है
आज कोई आ रहा है ....

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