मंगलवार, 3 जुलाई 2012

माँ ....


माँ ! तुम्हारी छवि
एक कुहासा है
पार इस के
कोई ,कहाँ जा पाता है
मैं, आ रहीं हूँ
कुहासे के उस पार
जहां
तुम होगी और मैं
खुल कर बातें करेंगे
जैसे बात करती है
एक स्त्री दूसरी से
बेपर्दा .......

माँ !
मेरे लिए तुम रही
एक छवि शाश्वत
ज़रा देखूं
आज इसे उलट
तुम्हारा घूंघट
तुम्हारा वास्तव
किस धातु का बना है  
तुम्हारा बिछुवा , कंगन
सारा का सारा आभूषण
कैसा है ??
युगों से ठहरी झील का  
स्वेद अश्रु  मिश्रित सान्द्र अम्लीय विलयन
इस अम्लराज  में
सब घुलता आया है ,अद्यतन
घुलती रहीं
बड़ी होती बेटियाँ
स्त्री में संस्कारित होने से पूर्व
एक अदद प्रसंस्कृत माँ
होती रहीं बेटियाँ

माँ
तुम्हारे रक्त मांस का
एक हिस्सा हूँ मैं ....
अपने स्त्री रूप में इतनी
अघुलन शील क्यों
क्यों नहीं घुल पाती
इस अम्लीय विलयन में
निथर निथर आती हूँ
फांस सी अटक जाती हूँ
तुम्हारे मन में
त्याग और ममता का शाश्वत आवरण भी
अब अक्सर ,उतर जाता है
कोई अनजाना अनचीन्हा भयानक
चेहरा नज़र आता है
जिसकी अँगुलियों के नाखून
कितने बड़े हैं
और मेरे कलेजे पर भी
फफोले पड़े हैं
आखिर किस धातु के गहने
फिर मुझे सौंप रही हो
मुझे नहीं चाहिए
अब ये बोझ किसी स्त्री को
ढोना नहीं चाहिए
मुझे तो बस
उस धातु शिल्पी का
पता बता दो
उस रसायनज्ञ की
प्रयोगशाला का अँधेरा
कोना दिखा दो
यह जिज्ञासु मन
जानना चाहता है
धातु कर्म की किस जटिल रासायनिक क्रिया ने
इन् धातुओं का निर्माण किया   
जिनका गलनांक
तर्क और विवेक के ताप से परे है
इनमे कौन से हीरे मोती जड़े हैं
भट्ठीयों के तापमान नियंत्रण का
सलीका क्या है
हे महान धातु कर्मियों
तुम्हें अंतिम प्रणाम करने का
तरीका क्या है ......

मैं,
जा रहीं हूँ ....माँ
तुम्हारे कंगन उतार
कुहासे से पार
उस लोक  में
जहां स्त्रीत्व है , मातृत्व है , ममता है
पर माँ नहीं है .........
हाँ नहीं है ......


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