शनिवार, 30 जून 2012

गज़ल


भूल भी जाऊं तो याद आने का डर रहता है 
वो इजाज़त बगैर मेरे घर में रहता है

ये चाँद भी कोई ना आशना मुसाफिर है 
रात की रात ये तन्हा सफर में रहता है

है जो खुद्दारियां सजदे के आड़े आती रही 
दर्द दिल में कभी कभी कमर में रहता है

मैं अगर बंद करूं आंख भी तो क्या हासिल 
वो तो बाकायदा मेरी नज़र में रहता है

छाले भी उसके पाँव के अब फूटते नही
तमाम उम्र किसी दोपहर में रहता है 

है यूँ खामोश कि आंखें भी कुछ नहीं कहती
कैसी तन्हाई है गहरे सिफर में रहता है

तमाम उलझनों में है घिरी ये गज़लेजिन्दगी 
अजीब शख्स है फिर भी बहर में रहता है

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