रविवार, 3 जून 2012


यूँ ही कभी कभी ..






यूँ ही कभी कभी,
किताबों की पुरानी रैक
साफ़ करते करते
गिर जाए
किसी किताब के बीच रखा गुलाब
और, बिखर..जाए
हरी कर दे 
स्मृतियों की पुष्पवाटिका
यूँ ही कभी कभी


यूँ ही कभी कभी
दिख जाए कोई रस्ते में
दफ्तर की जल्दी में
और मन कहे 
कि मैंने 
शायद तुम्हे पहले भी कही देखा है
थम जाए वक्त की रफ़्तार
दफ्तर की जल्दी,सभी
यूँ ही, कभी कभी.....


यूँ ही, कभी कभी
बैठे बिठाये
बचपन याद आये
और आँखों में
पिता के, पोपले मुँह की हंसी
उभर आये
पिता, जो अब भी बेसबर,
करते इंतज़ार
सुबह का अखबार
और फिर पुराना चश्मा उतार
आँखों से लगभग सटा, अखबार
देखना चाहते, पढ़ना चाहते,
हाल दुनिया का
कि, जैसे
बाकी रह गया हो, दुनिया को
देखना,समझना ,नजदीक से, अब भी
यूँ ही, कभी कभी ......


यूँ ही ,कभी कभी....
टूटे तन्द्रा,
फोन की घंटी से
कि ,बच्चा स्कूल से
लौटा नहीं अब तक
कि, गैस खत्म हो गयी,
और खाना,
नहीं बन पाया, तब तक
तमाम सूखे गुलाब
राह में मिले, अजनबी अहसास
पोपले मुंह की निश्छल हंसी
सब एकदम से ,
बिखर जाए
इस तरह चिहुंकाये ,
झकझोर जाए , जिंदगी ..
यूँ ही कभी कभी ...

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