राम नवमी के बहाने ....
तुम क्यों कर याद दिलाते
साल दर साल अपना जनम
कुछ तो रहने भी देते
अपने होने का भरम
वैसे भी तो ये ,
भगवानो की ही बस्ती है,
हर घर में एक कमरा
भगवान को अलाट है
जाकर देखो कि,
उसका कैसा ठाट है
वो जिनके ,
कोई घर नहीं होते हैं
देखो ज़रा तो,
फुटपाथों पे, वो कैसे सोते हैं
उन्हें मंदिरों में तुम्हारे,
जो शरण मिल पाती
तो रात उन्हें भी
कुछ नींद तो आ जाती
पर यहाँ तो
गंगा ही,
गंगा ही,
कुछ उल्टी बह रही है
पीड़ा के हिमालय से निकल ,
ताण्डव नर्तक की
जटा में मिल रही है
पता नहीं ,
अब किसके
पितरों को तारना है
पितरों को तारना है
इतने तो मर चुके,
अब कितनों को मारना है
मंदिर तुम्हारे,
पहले से इतने तो ज्यादा है
तब और बनवाने के पीछे
क्या इरादा है
किस असुरक्षा में
निजी संपत्तियां खड़ी कर रहे हो
इतने बरसों से अपना मुकदमा
खुद ही ,क्यों लड़ रहे हो ??
इन् अदालतों के
दीवानी मुक़दमे में
दीवानी मुक़दमे में
तुम भी फरीक हो
तमाम कत्लोगारत की फ़ौजदारिओं में
बराबर के शरीक हो
मैं जानता हूँ ,
कि किसी ने तुम्हारी
शिनाख्त नहीं की
मुंसिफ ने भी आगे ,क्यों
दरियाफ्त नहीं की...
बस इन्ही
खाक ओ खून की सियाही में
खाक ओ खून की सियाही में
कोई अन्तर्यामी ,
कभी क्यों नहीं दिखता
नवमी मनाई जाती है
पर राम नहीं दिखता
इंसान में भगवान तो
फिर दिख भी जाता है
भगवान में इंसान
फिर भी नहीं दिखता .....
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