रविवार, 27 मई 2012


जमीर .....


झाँक भी लो कभी
अपने गरेबां में 
ये ,वीरानगी सी क्यूँ है, छाई 
इस मकां में

अपने जमीर को, बारहा
कुरेदते रहो ...
अपने गले को,अपने ही हाथों 
रेतते रहो .......

न जगाये रख पाओगे 
तो ऊँघ ...सो जायेगा ...
आदमी के भीतर से, आदमी 
यूँ खो जायेगा ...

सफ़दर..! तुम्हे फिर आना है ...



तुम तन्हा कहाँ , इक कारवाँ हो
हो, न हो, हमारे दरमियाँ हो

मुकाबिल हुए,मारे गए खुले आम
कातिलोमकतुल सब ,
दर्ज रखता है अवाम
जो भी हो मुकाबला,
ज़ाया नहीं होता
किताबे वक्त में
बाकायदगी से दर्ज रहता
जिन्दा कौमों पे आयद
ये क़र्ज़ रहता
तुम्हारी शहादत ,एक खौफ सी ,
तारी हुक्काम पे
जिन्दा, मिसाल सी ,
जिन्दा अवाम पे
ये जंग बंद नहीं है ,
अभी जारी है
अब जंग है , तो लाजिम है ,
हमले होते रहेंगे
बस,तौर तरीके कुछ ,
बदलते रहेगे
अव्वलन,
जंग की शक्ल बदली
अब जंग के उसूल ,
बदल रहे है
पोशीदा हमलों के
सिलसिले से चल रहे है
ये, अजब है ना !
नए दौर की ,विडम्बना...

इस नयी सदी की
नयी पौध को ,
घातों की, विविधा से,
अभ्यस्त , कराना है
यूँ , अपने गढे नारों की
रूह का ,परकाया प्रवेश
रोकना है ,बचाना है
और बच्चों को ,
उस खुशफहम जमात से
अलगाना है
जो, इस तसव्वुर में कि,
राजा का बाजा बजायेंगे
और,राजा की रजा से 
अवाम को
अपनी बात सुनायेंगे  
कुछ बोलेंगे बतियाएंगे
राजा का बाजा
बजाती तो  है
इस्तेमाल कंरने
जाती तो हैं
पर कब्ल इसके, 
इस्तेमाल हो जाती हैं......

खुशफहमी में,
जो जियेंगे, मारे जायेंगे
जैसे मर गया था ,
कभी, तुम्हारा गीत
जिसकी, रूह तर्क कर ,
हाथ पैर काट कर
किश्तों में बाँट कर,
छितरा दिया गया
जो हुआ था तब, जो होता अब
तो क्या तुम,बर्दाश्त कर पाते ?
जैसे गिरगिट,
बदलते है रंग क्या तुम ,
बदल पाते ?

तुम फिर लड़ते,
और मारे जाते ,
इस रंग बदलती दुनिया के ,
बदलते पैंतरे
नयी पौध को समझाना है
सफ़दर ! तुम जहां कहीं भी हो
तुम्हे फिर आना है ...

राम नवमी के बहाने ....



तुम क्यों कर याद दिलाते 
साल दर साल अपना जनम
कुछ तो रहने भी देते 
अपने होने का भरम

वैसे भी तो ये ,
भगवानो की ही बस्ती है,
हर घर में एक कमरा 
भगवान को अलाट है 
जाकर देखो कि,
उसका कैसा ठाट है 

वो जिनके ,
कोई घर नहीं होते हैं 
देखो ज़रा तो,  
फुटपाथों पे, वो कैसे सोते हैं 
उन्हें मंदिरों में तुम्हारे,
जो शरण मिल पाती 
तो रात उन्हें भी
कुछ नींद तो आ जाती 

पर यहाँ तो
गंगा ही,
कुछ उल्टी बह रही है 
पीड़ा के हिमालय से निकल , 
ताण्डव नर्तक की
जटा में मिल रही है
पता नहीं ,
अब किसके 
पितरों को तारना है 
इतने तो मर चुके,
अब कितनों को मारना है 

मंदिर तुम्हारे,
पहले से इतने तो ज्यादा है
तब और बनवाने के पीछे
क्या इरादा है 
किस असुरक्षा में 
निजी संपत्तियां खड़ी कर रहे हो
इतने बरसों से अपना मुकदमा 
खुद ही ,क्यों लड़ रहे हो ??

इन् अदालतों के 
दीवानी मुक़दमे में 
तुम भी फरीक हो
तमाम कत्लोगारत की फ़ौजदारिओं में 
बराबर के शरीक हो

मैं जानता हूँ ,
कि किसी ने तुम्हारी
शिनाख्त नहीं की 
मुंसिफ ने भी आगे ,क्यों
दरियाफ्त नहीं की...

बस इन्ही 
खाक ओ खून की सियाही में 
कोई अन्तर्यामी ,
कभी क्यों नहीं दिखता
नवमी मनाई जाती है
पर राम नहीं दिखता 
इंसान में भगवान तो
फिर दिख भी जाता है 
भगवान में इंसान
फिर भी नहीं दिखता .....

जन गण मन अधिनायक .......तुम्हारी जय हो ....

तब ग्रेगे़रियन कैलेंडर
नहीं था और न ही था 
फरवरी जैसा कोई महीना 
न ही कोई सेंट वैलन्टाइन 
ऐसे आदिम युग में थी
आदिम मर्यादाएं
थे मर्यादा पुरुषोत्तम
वो रहा होगा
ऐसा ही कोई महीना
फरवरी या वसंत सा  
जब किसी सघन कानन में 
मर्यादा के किसी दुर्गम दुर्ग में 
किसी पुरुषोत्तम ने
गढे होंगे हथियार
था कोई शेषावतार 
किया होगा उसने 
उसका सफल परीक्षण
प्रारंभ हुआ तब ही से
प्रथम युद्ध 
प्रणय कातर
नश्वरों के विरुद्ध 
तू और कोई नहीं ,
वही है 
प्रथम अपराधिनी ,
मदन शर बिद्ध
क्यों भेदा था ?
मर्यादा का दुर्ग
निषिद्ध 
हे शूर्पणखा !
कर्ण- नासिका ,वियुक्त 
शूर्पणखा,
त्रेता से कलिकाल तक
शापित शूर्पणखा !
श्रीराम सेना के मर्यादा मंत्र से 
अद्यतन,
अभिमंत्रित शूर्पणखा.......

कहाँ,
रघुकुल तिलक
मर्यादा पुरूषोत्तम
कहाँ,
नीच,निर्लज्ज, दुस्साहसी
आसुरी अधम
शूर्पणखे'
तुम्हारी क्षय हो

जन गण मन अधिनायक 
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम
तुम्हारी जय हो ..... 

ये कोई कविता नहीं है

.......................ये कोई कविता नहीं है 



डिस्पोसेबल ग्लास का एक गत्ता 
जिसमे 
ग्लास चार,साढ़े चार हज़ार 
ऐसा दिन भर में 
कुल बीस  भरना है
तब तलक 
मुल्तवी मरना है 
गत्ता पीछे ,रुपया बारह
और घर मे
एक और एक
कुल इग्यारह 

उफ़ , ये गर्मी,
तापमान, चालीस पार 
बगल में  बच्चा, बीमार ..
एक ग्लास उसके ऊपर , फिर एक  और 
फिर फिर  .....और और 
और, एक और गत्ता तैयार 

ऐसा करती रहती वो, लगातार 
एक आँख बच्चे पर 
दूसरी ग्लास की  ढेरी  पर 
ढेरी पर ढेरी  
बढती  जाती 
मशीन है कि 
उगलती जाती 
धड धड धड ,,,,धाड़  
धड धड धड ,,,,धाड़
हांफती है मशीन 
कांपती है जमीन 
बच्चा कुनमुनाया 
अम्म्म्म अअयाअअया 
कलेजा मुंह को आया 
क्या करे अब ,
क्या हो....?
क्क कूलेंट ........डालो !
मशीन गरम हुई जा रही है 
और वो ठंडी ........
बिना ... कूलेंट ..
दस .. ग्यारह ...... बा....र......ह ..बस 
मशीन से कैसे लड़े  अब 
फिर भी ....
लड़े जा रही है 
लड़े जा रही है
लड़ाई जारी है
है.. ल.ड़ा.ई.. जा ...री .. 
मशीन से ...मालिक से 
मरद से ......खालिक से 
मुल्क से .. मुमालिक से
श्याम तन भर बंधा यौवन
महाप्राण ,माफ करो 
जल्द से जल्द , साब 
अब, हिसाब साफ़ करो 

बारह गुणे बीस  
दो सौ चालीस .....
..............
बारह गुणे तेरह 
एक सौ  ..छ प्प...न.

कल से कुल चौरासी  कम 
साब
खाओ 
रहम
रहम... खा...ओ 
पैसा पूरा दिलवाओ  
क्यों ,क्यों दिलवाओ ,

बच्चा तेरा, क्या मैंने बीमार किया है 
बनिए से तेरे,क्या मैंने उधार लिया है 
साब .. साब ,
बच्चे की  दवा ,नगद
बनिए से सौदा ,नगद 
बुढिया के जोड़ों का दरद 
ऊपर से  स्स्साला '
मेरा मरद 
उसका अद्धा भी तो 
पूरा नहीं आएगा ....
मगर मेरा बच्चा .....
मर जाएगा ...
मेराआआ ..... बच्चा .....
अच्छा ,अच्छा..!
ओवर टाइम करेगी ??
आज  रात भी 
मशीन चलेगी
या फिर भूखी  मरेगी


इसी वक़्त करेगी 
ये ले, 
धड धड धड ,,,,धाड़  
धड धड धड ,,,,धाड़
तेरी ..........
हिसाब देख-- 
आठ घंटे में
चार हज़ार गुणे बीस
हुए कितने अस्सी हज़ार ---
एक घंटे में..हुए ....अस्सी बटे आठ 
कुल, दस.. हज़ार
एक घंटा,  हाँ सिर्फ
एक घंटा ....
ओवर टाइम  करवाएगा
या ..अपनी ......

शनिवार, 26 मई 2012

मैं तुम्हारा बाप हूँ

....................मैं तुम्हारा बाप हूँ....................






मैं, तुम्हारा बाप हूँ 
हाँ ,तो ....?

मैंने, तुम्हे पैदा किया है 
जानता हूँ ,तो...? 

मैंने, तुम्हे पाला पोसा,बड़ा किया है
सच है ,तो.....?

बुढ़ापे में, 
मैं और तुम्हारी माँ 
कहाँ जायेंगे ,कैसे रहेंगे 
क्या, इसी दिन के लिए,
तुम्हे, पैदा किया 
पाला ...पोसा.....बड़ा किया 
शायद...
मतलब ?
मतलब कि,
आप यही रहेंगे
कही नहीं जायेंगे
मैं भी यही रहूँगा ,
आपके साथ
आप भी यही रहेंगे ,
मेरे साथ .....

मैं ,
ये इसलिए नहीं कह रहा
कि,आपने 
वो सब किया 
जो एक बाप को
करना चाहिए 
कि, ये कोई क़र्ज़ है
जो उतरना चाहिए  
कि ये कोई एहसान है
जिसके बोझ तले
मैं दबा हूँ,
जिससे 
निकलना चाहिए 
मुझे तो, 
ये करना ही है
कि, ये मेरे लिए
इंसानियत कि शर्त है
कि,ये कोई सौदा नहीं है
और
न ही कोई उधारी......

सिर्फ, इंसानियत ....!
कंपकपाया,पिता का स्वर यन्त्र 

सिर्फ, इंसानियत ....!
कंठ से फूटा हो जैसे मंत्र

सिर्फ, इंसानियत ....!

मैंने सर उठाया
पिता के नेत्रों से 
झर रहा,
ज्यों मंत्र - निर्झर 
झर झर झर 
झर झर झर 
काल कुंठित, प्रौढ़ प्रेत से, पिता लगे 
संबंधों के निर्वात से झांकते, पिता लगे

निष्प्राण निर्वासन झेलता 
बरस बीता ,दशक बीता 
आज भी ,
उसी प्रेत बाधा से ग्रस्त
जीवन जी रहा
  
मिला पाता आँख 
न,अपने आप से 
न् अपने ही सद्यः जात से 
कदाचित, मिल ही गयीं कभी 
देखता हूँ, ज्यों 
काल कुंठित प्रौढ़ प्रेत का
वो मंत्र--निर्झर झर रहा है
और मेरे भीतर कोई बाप
धीरे धीरे मर रहा है .... 

तुम न बोलोगे ....


तुम न बोलोगे
तो क्या,
कुछ भी समझ न आएगा 
तुम न खोलोगे ,
तो क्या,
सब राज ही रह जाएगा

बोलती हैं आँखे, 
और 
बोलती है देह भी

बोलते हैं शब्द 
और  
बोलता है मौन भी

मैं भी चुप
और
तुम भी मौन
इस गहन नीरव को
फिर ये
तोड़ता है कौन

कितने दुःख 
संग संग है बांटे 
कितने बंधन साथ काटे
फिर यकायक
साथ ऐसे
छोड़ता है कौन

अपने हाथों की लकीरें 
गौर से देखो कभी 
जिंदगी को 
इस भंवर में
मोड़ता है कौन

है अगरचे, रात काली 
भोर से पहले,
मगर 
शाम का सूरज,
सुबह से 
जोड़ता है कौन...  

मैं .............एंटीलिया ....!

समय की अदालत में 
सदी का मुकदमा
आखिरी पेशी  
मुकदमा
यूनियन ऑफ इंडिया 
बनाम
एंटीलिया
सिर्फ
टिक टिक .... क्लिक क्लिक
क्लिक क्लिक......टिक टिक
एंटीलिया..........!
हाज़िर हो....!
हाज़िर हूँ......!  मी  लार्ड ..
एंटीलिया.. !
अब जबकि,
तुम पर आयद सारे आरोप 
साबित हो चुके हैं
सजा सुनाये जाने से पहले 
तुम्हे कुछ कहना है 
जी , जी हुज़ूर ,
तो ,हलफ उठाओ !....एंटीलिया.!
मैं... एंटीलिया...
इतिहास को साक्षी मान 
अपने पूरे होशो हवास में ,
जो कहूँगी , सच कहूँगी
सच के सिवा कुछ नहीं कहूँगी 
मैं..एंटीलिया , हाल मुकाम.......इन्डिया
बयान करती हूँ ,
यह कि ,

मैं पूँजी के वैभव की
ऐश्वर्य की प्रतीक हूँ
उसके गुनाहेअज़ीम में
बाकायदा शरीक हूँ

मैं सदी के सबसे
दौलतमंद की ख्वाहिश हूँ
मैं किसी बेगैरत के
घमंड की नुमाईश हूँ
मैं दौलत की मशक्कत से
आजमायी हुई साज़िश हूँ 
मै किसी दौलतमंद की
अजीम्मुशान रिहाईश हूँ

मैं,दौलत की बुलंदी का
जिन्दा मुकाम  हूँ
तमाम लूट ओ खसोट का
हलफिया बयान हूँ

मैं आवारा दौलत का
लहराता हुआ परचम हूँ  
मैं हवस की किताब में 
सोने का कलम हूँ

मैं मुल्क के सीने में दफ्न
खंज़र की मूठ हूँ
मै इस जुल्मी निजाम का
सबसे, सफ़ेद झूठ हूँ

मैं तमाम शहरियों की
हसरत हूँ , टकटकी हूँ
कितने ही मेहनतकशों की
कुर्बान जिंदगी हूँ

मैं दिलफरेब बहुत हूँ 
लुभाती भी बहुत हूँ  
सपनो में आ आ के
सताती भी बहुत हूँ

मैं जागता सपना हूँ, 
उनसे , भागता सपना हूँ 
प्रबंधन के विशेषज्ञों की
कोरी प्रवंचना हूँ

मैं ही,आज ताकत हूँ 
सत्ता हूँ ,प्रतिष्ठा हूँ ,
इस जुल्मी हुकूमत की
नायाब सफलता हूँ

मैं कोरी औ खोखली
भावुकता , नहीं जानती 
सम्वेदना हो ,शील हो ,
किसी को नहीं पहचानती

मूल्यों के मकडजाल से
कब की उबर चुकी हूँ
ऐसे तमाम रास्तों से
निःसंकोच गुजर चुकी हूँ

मैं, कंधे पर पाँव रख
बढ़ जाना जानती हूँ  
हुक्काम की दराज में
दुबकना भी जानती हूँ 

झगड़ना भी जानती हूँ
अकडना भी जानती हूँ
आये कोई मौका, तो
पकडना भी जानती हूँ 

समझौता भी जानती हूँ ,
कुचलना भी जानती हूँ 
मचलना भी जानती हूँ ,
तो,छलना भी जानतीहूँ

मैं,आघात जानती हूँ
प्रतिघात जानती हूँ
मासूम मुफ़लिसी से
विश्वासघात जानती हूँ

शातिर ओ मक्कार हूँ
मैं कौम की गद्दार हूँ,
मतलब की यार हूँ, 
मैं ,कुशल फनकार हूँ

मंच से कभी, तो
नेपथ्य से कभी 
विभ्रम से कभी, तो 
असत्य से कभी 
लुब्ध कर सकती हूँ ,
मुग्ध कर सकती हू

भूकम्प से
बच सकती हूँ
तूफां से
निकल सकती हूँ  
बमों की
बौछार हो 
गोलियों की
मार हो   
सब को
झेल सकती हूँ 
पीछे
ढकेल सकती हूँ

रेशमी अहसास हो
भोले भले जज़्बात हो 
ऐसे खिलौनों को
यूँ चुटकी में
तोड़ सकती हूँ

मै निष्ठुर हूँ, निर्लज्ज हूँ 
निरंकुश  हूँ ,नृशंस हूँ

मैं जज्बाती नहीं 
किसी की साथी नहीं
मैं..... एंटीलिया
सिर्फ खुद से प्यार करती हूँ
सिर्फ खुद से प्यार करती हूँ

बयान पूरा हुआ ...मी लार्ड !
समय की अदालत में
इतिहास को साक्षी मान ,
दुरुस्त होशोहवास में 
बगैर जोरोजबर 
दस्तखत बना रही हूँ

ताकि सनद रहे ........
                               एंटी...लिया
                            हाल मुकाम इन्.......या