..........................................................................
गुरुत्वाकर्षण कम था
या धरती से मोह भंग
पता नहीं
मेरा ही कोई दोस्त था .....नील आर्म स्ट्राँग
लंबे लंबे डग भरता
निकल गया
मैं तकता रह गया
उम्मीद के उस टुकड़े को
जो कभी चाँद सा चमकता था
गहरी उदास रातों में
निकलता नैराश्य के अँधेरे गर्त से
उजास की तरह
और फ़ैल जाता
चला गया एक दिन
हाँ , खबर तो यही थी
तस्वीर भी छपी थी
उस रोज
कि मेरे उसी दोस्त ने
झंडा गाड़ दिया
मेरे चाँद पे ,
उसकी धरती ने जीत लिया
मेरा चाँद
यहाँ ,
चिलचिलाती धूप में
कोई झंडा नहीं दीखता
दीखता है
सगुन का बांस
उसपे फहराता झंडा
जिसे कभी गाडा था हमने .....
कुआं खोदने के बाद
गाँव में ...
हम बदल रहे थे धरती का रंग
वो जीत रहा था एक बंजर जंग
वो छलांगें लगा रहा था ,हम चल रहे थे
वो बदल चुका था ......हम बदल रहे थे
वो पहेलियाँ बूझ रहा रहा था
हम जिन्दा सवाल ........हल कर रहे थे
................................................................ पंकज
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें