क्या होती है ?
किस जमीन पर
हौले से पाँव धरती है
कहाँ से ,
अक्स पाती है
कहाँ पे
नक्श छोड़ जाती है ....
सद्यः जात का रुदनसंगीत
ध्यान से
सुनो
सरगम से बाहर
कोई सुर ,
चुन सको तो
चुनो ,
चुनो ...न
,
बूढ़ी ,टिमटिमाती ,बुझती
मरणासन्न ,
आँखों में
जीवन का,सपना
पढ़ सको तो
पढ़ो ,
पढों.... न
ठन्डे होते जाते जिस्म मे
गर्म लहू की
कल्पना ....
कर सको तो
करो ,
करो.... न
शब्दों कीं सलाई से
इन्द्रधनुष के पार कोई ,
सतरंगी सपना
बुन सको तो
बुनो ,
बुनो ....न
धरती और अम्बर के पार
नया संसार
रच सको तो
रचो ,
रचो ...न
आसमानी विस्तार के पार
कल्पना के पर लिए
ऊंची उड़ान
भर सको तो
भरो,
भरो.... न
रचो ! हे महाकवि ! बिलकुल ,रचो
नितांत मौलिक रचना
कुछ अपना ,
सिर्फ अपना
जो रच सको तो
रचो ....
रचो ......न !
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें